सरसी | Sarasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जो बात हम वक्ता लोग श्रपन विस्तत व्याख्यानों में नहीं कह सके, उसे एकं छन्द मेँ ही मित्र' जी ने बड़ी ख़बी से कह सुनाया ! जब मित्र जी कोकिल से प्रार्थना करते हें : मद से ये छके हुए लोचनों से, हिय के छिपे भेद को खोल न देना । सुख-स्वर्ण की राशि भरी हुई का, त्‌ कहीं किसी से कर मोल न देना । अपने कल-कण्ठ को साध श्ररी, स्वर से तू कह নীল লবলা। सधुरे ! श्रपनी प्रिय माधुरी का, कलियों में श्ररी, सधु घोल न देना । और जब वह उनकी प्रार्थना को न मान कर कह-कह' बोल ही देती है, उस समय मित्र' जी का उलाहना सुन लीजिए : मृदु भाषिनी मानी नहीं पल को, त्‌ रसाल के डाल कहू-कह बोली । बहने लगी पौन सुगन्ध सनी, वह चोकड़ी भूली क्रंग की टोली । कर में लिए गागरी मुग्ध खडी, तट पे युगयाम से भामिनी भोली 1 वह दौडी पराग को भुद्खावली, कलियों ने सुमादक श्रख हं खोली । मित्र! जी की सरसी' में भिन्न-भिन्न भावों और रंगों के कितने ही पृष्प खिले हुए हें । प्राकृतिक सौन्दर्य के वे बड़े प्रेमी हें और बुन्देलखण्ड की नदी माताओं के प्रति उनके हृदय में अनन्य श्रद्धा हें। इस विषय में हमारी और उनकी रुचि का पूर्ण मेल हैं। 'कलौ वेत्रवती गंगा' के उद्गम स्थन की तीथं-यात्रा हमने की थी ग्रौर माता जमड़ार की गोद में श्रट- खेलियाँ करना हमने यहीं छयालीसवीं वर्ष में सीखा था । क्‍या ही अच्छा हो यदि कभी मित्र जी जंसे बन्धुग्नों की मण्डली के साथ भारत की अन्य नदियों की तीर्थ-यात्रा का अवसर हमें मिले ! 'मित्र' जी ने अश्रपनी कविताओं में कई भावों को बड़ी ख़बी के साथ उतारा है। जब वे अत्याचार-पीड़ित विधवा के मुख से कहलाते हैं : नर किन्तु हृदय को थाम जरा, मन कै दर्पन को साफ़ करें। खुद अपनी चरित-हीनता का, कुछ न्यायोचित इन्साफ़ करें। = তি, 2




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