मोक्षमार्ग प्रकाश | Mokshamarg Prakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सातवाँ अध्याय ই हम तो सनातन जैन घर्मावलम्वी हैं और वीतरागकी श्राज्ञाका पालन करते है-एेमा माननेवाले जेन भी मिध्याहष्टि होते है । उप्त भिथ्यात्वका श्रण भी बुरा है, इसलिये वह सूक्ष्म मिथ्यात्व भी छोडने योग्य है । श्रव कहते है कि जितागममे निशरुचय-व्यवहारूरूप वर्णन है, उसमे यथार्थका नाम निरईंचय और उपचारका नाम व्यवहार है । पट्खण्डागम और समयसारादिको आ्रगम' कहा जाता है, उसमें जैसा निश्चय-व्यवहा रका स्वरूप कहा गया है वैसे स्वरूपको जो यथावत्‌ नही जानते और विपरीत मानते है वे भी मिथ्याहष्टि हैं। उनकी यहाँ बात करते हैं । मात्र निश्वयनयावलम्बी जैनाभार्सोका वर्णन जो अकेले निश्चयनयको मानते है किन्तु व्यवहारको मानते ही नहीं-ऐसे मिथ्याहृष्टि जीवोका स्वरूप कहते हैं | कोई कोई जीव निश्चयको न जानकर मात्र चिर्चयाभासके श्रद्धानी वनकर अपने को मोक्षमार्गी मानते है वे निङचयके स्वरूपको नही जानते । हमे मोक्ष- मागं प्रगट हुआ हे-ऐसा वे मानते हैं और अपने श्रात्माका सिद्ध समान श्रनुभव करते हूँ, किन्तु स्वय प्रत्यक्ष ससारी होने पर भी अमसे अपने को वतंमान पर्यायमे सिद्ध समान भान रहे हैं वही भिथ्याहष्टि---निश्चयाभासी है | जैन कुलमे जन्म लेकर, समय- सारादि शास्त्र पढकर भी जो अपनी मति कल्पनासे पर्यायमे होने- वाले विकारको नही मानते वे मिथ्यादृष्टि हैं । स सारपर्यायमें मोक्प्यायकी मान्यता वह भ्रम रै श्रात्माकी पर्यायमें रागादि हैं वह ससार है, वह प्रत्यक्ष होने




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