काव्यात्मा - मीमांसा | Kavyatma Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-( ७ ) मठ वैचिष्य से वक्रोक्तिसखदाय याना जाता है। भद्दनावक के द्वारा उपस्थापित ( रसनिष्पत्ति में कारण रूप ) मोजकलमूलक मत खतन्त्र न হীন रस-सम्पदाय के अन्तर्गत हो आ जाता है। व्यन्यमूलक वैशिप्ट्य से आनन्दवर्धन का ध्वनि-सम्प्रदाय ग्रचालित हुआ है! आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त आदि के द्वारा ग्रतिपादित ऑँचित्य से क्षेमेन्द्र के ऑचित्य में कोई अभिनय वैशिप्यय न देसफ़र हीं प्रायः समुद्रयन्ध ने ऑवचित्य- सम्प्रदाय की चर्चा नहीं की है। जैसे पच्महामभूत से निर्मित पाटकोशिक झरीर में सबसे महत्तपूर्ण आत्मतत्त है, वृसे ही काव्यगरीर में सबसे महत्तज्नाली आत्मवत्त है। अत्या से जव तर सरं मेमन्पित रहता हं तेव तक उप्त मूत्याफन नहीं हो सकता | उस स्थिति में देगग, ईश्वर आदि समी कु অতীত के द्वारा प्राप्त किये जा सकते है। परन्तु आयमश्न्य होने पर झय-शरीर में सब कुछ रहने पर भी उसका कुछ भी मूल्य नहीं होता। अतएप दश्चनद्यास्र मे आत्मपिपयकं अन्येषण प्रधान से किया गया है और बतलाया गया है कि आत्म-वान होने पर व्यक्ति आनन्दविभोर होमर छतछत्य हो जाता है। इसलिए भारतीय दर्शनों में आत्मा का শিষ্য आरल से हो ग्रधुप्त विषय रहा है। वैसे ही काव्यतात्र में झक्ति व्युत्पत्ति ओर अभ्यात्त इस हेतुतव से प्दाराव्‌ ऋषिसत्ए कवि के द्वारा जावमान ठोक्ेच्र वर्णनरूप कवि-कर्म-काव्य में अपूर्व चमत्कार या परमा- हाद परमो तत्त को ` आत्मत्व कहा गया है । उक्ती जात्मतत्व से समन्त होने प्र शच्दाथरूय काव्यशरीर महत्तगाली होताहै और उससे शूल्य होने पर शब के समान तुच्छ हो जाता है। काब्यप्ात्र के विभिन्न आचायों ने काव्य में उसी आहादक तत्त्त को रत, अलकार, रीति, ध्यनि, वकीक्ति ओर आचित्य आदि मित्र-मित्र झच्दों से समय-समय पर अभिहित किया है। इसी काव्यगाबीय आत्मतत्तर की यरेपणा इस झोघ- २, इद विशिष्टी शब्दार्यी द्रव्यम्‌ । तवोश्व देशिष्य्य पमेमुखेन न्यापारस॒सेन व्यहय- झुसेन बेति भ्यः पश्चाए 1 माचेऽप्यलकाट्ठो युपे इनि देषिध्यम्‌ ! द्वितरीवेऽपि भगिनि-ैचिन्े मोगङ्त्वेन वेनि द्ैषिध्यम्‌ 1 ति पद्यु पकषेु माच उद्भगदि- भिरक्कीकृत-, द्वितीयो वामनेन, च्तीयो वङोकि रीषितकारेण, चनुर्थो मटूनायकेन, पष्टम आनन्ददरपनेन । अश० स को হীন, হও ९1 २का० मीः भऽ




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