श्री भगवत दर्शन [खंड - 94 ] | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 94 ]

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Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 94 ] by श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी - Shree Prabhu Duttji Brhmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११) -मेजे जनि लगे ! नये लोग तो भ्रथम श्रेणी में आते ही नहीं थे । आते भी तो बहुत न्यून सर्वत्र निराशा व्याप्त हो रायी । पं० मोती -लालजी ने चूटकर स्थान-स्याने पर जाना आरम्भ कर दिया था। हम श्रव कु ही लोग रह गये ये । अन्त में मेरे छूटने का दिन आया | मुझे छूटने की कोई प्रसन्नता नदरी थी, किन्तु इतने अच्छे लोगो से वियोग का इभ्ख था । जैसे परिवार फे लोग अपनी पुत्रीको विदा करवे है, उत्ती प्रकार सभी ने फाटक तक मुझे अत्यन्त स्नेह से विदाई दौ । मै कूठ-फूटकर यो रहा था। और भाईयों के नेत्र भी अश्रपूर्ण थे। बड़े कष्ट से मैं घाहर हुआ। बाहर एक परिचित स्वागत के लिये आये थे। उससे मैंने श्रयाग के 'इन्डीपेंडेन्ट! में अपने छूटने का त्तार दिल्ला दिया। जो मेरे खुरजा पहुँचने के पहिले ही छप गया। হু पहुँचा, वहाँ सर्वेत्र सन्नाटा था, सब सूना-सूना लगा। शवे गङ्गा किनारे अनूपशहर चलकर महीने भर रहकर चान्द्रायण লব कर । इसलिये मै सथसे विदा लेकर मो जाहवी की फ्रोड़ में क्रीड़ा करने अनूपशहर चला गया। अब अनूपशहर का बृत्तान्तअगले संस्मरण ঈ-- জব্দ सदा एक-सो समय भयों नहिं कबहूँ होगी । द्विन-विन बदलत रहते परे पिर जैसों भोगी॥ सब वे ही हरि करत सबनिकू नाच नचायें | उचति-अ्रवनति, ऊँच-वीच वे ई द्रत यै ई पुस-दुख-जनम अरु, मृत्य देत हैं सबनिकूँ। सवमे जो उनिकूंः लसै, दले सथमे उनहिंकू ॥ स्येषठ ० ५. २० २९ ॥ प्रतिष्ठानयुर-प्रयाग प्रशुद्त्त




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