हिन्दू ईसाई एवं इस्लाम धर्म में ईश्वर के स्वरूप का अध्ययन | Hindu, Isai Avam Islam Dharma Me Ishvar Ke Swaroop Ka Adhyayna
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
275
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about अवनीश कुमार पाण्डेय - Avnish Kumar Pandey
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दर पुश्त चलती रहीं और चलती जा रही हैं।
धर्म के इस पुश्तैनी रूप को समझना सरल है। हम व्यक्तिगत रूप से न हिन्दू हैं, न मुसलमान, न क्रिस्तान या अन्य
कोई मतावलम्बी । क्योकि प्रकृति तो मनुष्य को केवल इसान बनाकर इस दुनिया में लाती है, किन्तु आस-पास का वातावरण
हमे एक निश्चित पुश्तैनी धर्म के अनुयायी के रूप में ढाल देता है। ऐसे कितने लोग है जो सोच समझकर किसी धर्म की
स्वीकार किया है ? जिस प्रकार व्यक्ति घर की भाषा सीख जाता है, उसी प्रकार वह घर का धर्म भी स्वाभाविक रूप से ग्रहण
कर लेता है। किन्तु जिस धर्म को वह ग्रहण करता है, वह स्वाभाविक रूप से केवल रूढ़िवादी धर्म ही हो सकता है क्योंकि
वास्तविक धर्म केवल मानसिक और बौद्धिक प्रयासों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी क्षमता व्यक्ति के
जीवन के प्रारम्भिक काल में विकसित नहीं हो पाती |
कभी-कभी धर्म को लेकर या धर्म के सम्प्रत्यय को लेकर जो झगडे भडक उठते हैं, यदि उनकी हम मीमासा करे तो हमे
दिखाई देगा कि वे झगडे कुछ इसी ढंग के होते हैं जिस ढग के झगड़े हमारी जमीन या हमारी किसी भौतिक सम्पत्ति को लेकर
होते है, जिनके हम अपने आप को वारिस मानते हैं। फर्क इतना ही होता है कि सम्पत्ति साधारणतया वैयक्तिक दायरे में ही
रहती है जबकि धर्म की सम्पत्ति एक सीमा तक एक वर्ग के दायरे में आ जाती है। इस लिए एक पूरा वर्ग उसके विषय में
भावुकता से सोचता तथा व्यवहार करता है। ऐसी स्थिति में तथाकथित धर्म के झगडे वास्तव में धर्म के झगडे होते ही नहीं है।
काश, हम यह समझ लें, तो हमारा व्यवहार ही नहीं, हमारी सारी प्रतिक्रिया ही बदल जाय | इसलिए धर्म पर जितने भी लांछन
मार्क्स जैसे लोगों ने लगायें है, वे धर्म पर टिकते ही नहीं ।
वास्तविकं बात तो यह हे कि मानव जीवन की समस्त बुराईयों की जड में व्यक्ति की विवेकहीनता काम करती है। धर्म
इस विवेकहीनता को भस्मसात् करना चाहता है, एक दृढ रागात्मक प्रयास के द्वारा जिसमें परिसीमायें नहीं होती, जो गगन की
तरह व्यक्ति को अनन्त तथा उदार बनाना चाहता है। धर्म अपने वास्तविक रूप में अनन्त से, निस्सीम से, विराट से सम्बन्ध
स्थापित करना ही नहीं, उससे इतना रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करना है कि व्यक्ति फिर व्यक्ति रह ही नहीं सकता । इसी बात
को भागवत् ने, जो भक्ति धर्म का ओजस्वी ग्रंथ कहा जा सकता है, यह कहकर प्रकट किया है कि गोपियां अपने प्रिय का ध्यान
करते-करते प्रिय रूप ही बन गयी।' धर्म इस तरह व्यक्ति द्वारा विराट से आन्तरिक सम्बन्ध स्थापन ही है, और यह सम्बन्ध
इस तरह दृढ हो जाता है कि व्यक्ति की सीमायें अपने आप गिर जाती है, और वह आत्मा से परमात्मा बन जाता है।
धर्म का नाम लेते ही हम मदिरों, मस्जिदों, गुरूद्वारों, गिरजाघरों, प्रार्थनाओं, पोधियों, रूढियों आदि का स्मरण करने
लगते है किन्तु इन्हें धर्म नहीं माना जा सकता है। ऐसे धर्म हैं जिनमें इनके लिए कोई स्थान नहीं है। ऐसे भी व्यक्ति है
जिनके लिए धर्म का अर्थ हे ईश्वर मे या आत्माओं तथा अतिमानवीय शक्तियो मे विश्वास; किन्तु ऐसे भी धर्म हैं जिनमें यह
1 भागवत् ~ प्रियस्थप्रतिूढ मूर्तय'
डॉ० रामनारायण व्यास्- धर्म दर्शन, पृष्ठ-16
2 जी०टी० डब्ल्यू पैट्रिक - इन्ट्रोडक्शन टु फिलॉस्फी, पृष्ठ- 97
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