प्राकृत भाषाओँ का व्याकरण | Prakrit Bhashaon Ka Vyakaran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
47 MB
कुल पष्ठ :
998
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नर ९ नव
केवल एक गब्द के सिलसिले में उसने हुग्ग का नाम दिया है। यह नाम विचित्र है
और अति अज्ञात है | यह उल्लेख वहों हुआ है, जहाँ यह बताया गया है कि कहीं-कहीं
क का ह हो जाता है--जैसे, स ० चिकुर->प्रा 'चिहुर ( टेसचद्र १, १८६; वरझुचि
२, ४ ) | टीका में हेमचद्र ने खय वताया है कि चिहुर का प्रयोग स० मे भी है।
लिखा है--'चिहुरशब्दः संस्क्ृतेडषपीति हुस्ग:/ ।!” पिथल ने इसका अनुवाद किया
है---/हुग्ग ( $ ३६ ) कहता है कि चिहुर शब्द सस्कृत में भी पाया जाता है। किन्तु
इस विषय पर हुग्ग के अतिरिक्त किसी दूसरे वैयाकरण का प्रमाण नहीं दे सका | हेस-
चद्र के गन्थ की हस्तलिपियों मे इस नाम के नाना रूप पाये जाते है--कही हुग्गः है,
तो कहीं दर्भः पाया जाता है। त्रिविक्रम ने १, ३, १७ में हुँगाचायेः लिखा है।
त्रिविक्रम की दूसरी हस्तलिपि में इस स्थान पर आहुर_ आचार्याः पाया जाता है।
लक्ष्मीधर की छपी घडभाषा-चन्द्रिका की प्रति मे ( ० ७४) इसके खान पर भ्रज्ञाचायेः
( इस्तलिपि मे ऋद्धयाचार्यः है ) | इन पाठातरो से प्रमाणित होता है कि लिपिकार हुग्ग
को जानते ही न थे तथा हेमचद्र के चेले भी उससे अपरिचित थे |
हुग्ग की समस्या पिशल के समय से अभी तक एक कदम भी आगे नहीं बढी |
पिशल के समय यह जहाँ थी, अभी वहीं है। मुझे लगता है कि यह समस्या हुग्ग के नाम
से कभी सुल्झेगी भी नहीं । हुग्गः समवतः सिद्ध: के स्थान पर अश्युद्ध लिखा गया है।
यह अश्ुद्धि एक बहुत पुरानी हस्तलिपि मे पाई जाती है, जो हेमचढद्र के वाद ही लिखी
गई थी | इस स्थान पर होना चाहिए--चिहु रशब्दः संस्कृते5पि सिद्ध।, चिहुर
अब्द सस्कृत से भी सिद्ध होता है। इससे थोड़े ही पहले ऐसे ही अवसर पर ( टेमचद्र
१,१७१ ) आया है--मोरो मऊरो इति तु मोस्मयूरशब्दा+यास् खिद्धम्, इसका
अनुवाद पिशल साहब ने किया है--मोर और मऊर अब्द मोर और मयूर से सिद्ध
होते है। ( इससे मालूम पडता है कि हेमचद्र मोर को भी संस्कृत गब्द मानता टै,
कितु अव तक यह सस्क्ृत से मिला नहीं है। )'
यदि हुग्ग ही भ्रमपूर्ण पाठ है, तो यह बहुत ह्वी कठिन है कि जो आचार्य विना
नाम के उद्धुत किये गये हैं, उनका परिचय प्राप्त करना असभव ही है। इति जन्ये,
इति कचित्, इति कश्चित् आदि का क्या पतता र्ग सकता है १
--डोस्वी नित्तिः ठे प्रामैरियो पराकृत, १० १४७-१५०
ऊपर के उद्धरणो से पिदश से, प्राकृत भाषाओ कै विद्धान् डौस्वी नित्तिका
मतभेद प्रकट होता है। साथ साथ तथाकथित आचार्य हुग्ग के नाम का कुछ खुलासा
भी हो जाता है) मतभेद या आलोचना सत्य की झोध में मुख्य स्थान रखती है ।
हमारे विह्ाानो ने कहा है--
शत्रोरपि गुणा चाच्या दोपास्त्याज्या गुरोरपि।
यह महान् सत्य है। इसके अनुसार चलने से ज्ञान-विज्ञान आगे बढते है | इस
कारण ही प्राकृत मापाओ के इस व्याकरण के भीतर टेखेंगे कि पियल ने कई
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