नवसतसई सार [भाग 1 व 2] | Navsatsai saar [Part 1 and 2]

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Navsatsai saar [Part 1 and 2] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १५ हुई है। इसका कारण यह है कि “कहीं कहीं एक ही देहे में रस कौ मधुर ब्यंजना, अलड्लारों की यु्टु बेजन श्रीर शब्दो का लालित्य खथ साथ देखने के मिलता है । ...इनक्ी वाक्य-रचना भी बहुत गणी हुई है |» विहारो की दृष्टि से सूर्म से सदेम वार्तों मी बच नहीं सकी | इनके वर्णन पढ़ने से “एक चल्ल-चित्र-सा श्राँखों के सामने खिँच जाता है ।?” बिहारी के एक ही दोहे में अदूमुत चमत्कार मरा होता है। चमत्कार की दृष्टि से प्रत्येक दोह्य अनमोल रन है। दे-एक दोहे नीचे दिये जाते हैं :-- विशुस्यो जावुक सैति-पग निरखि हँसी गहि गाँसु । सलज हँसीहीं लखि, लियो, आधी हंसी उर्सांसु ॥ अर्थात्‌ तौत के पाँवों मे बिधथुरा ( फैला हुआ ) जावक ( महावर ) देखकर वह मन मे गाछ (गुप्त मावना) रखकर हँसी। (परन्तु फिर उस উল के ) लज्जायुक्त हँसती देखकर ( उसने श्राधी ही हँसी मे श्रर्थात्‌ हँसी के बीच मे ही ) शोक से गहरा साँस लिया |?” वह (समझ गईं कि यह महावर स्वामी ने स्त्रय॑ इसके पैरों पर लगाया है, इसलिए यह ठीक नहीं लगा । अतएव स्वामी का सैतन पर अगाध प्रेम विचार कर सैतन ने गहरा साँस लिया | चिरजीवे! जोरी, जुरे स्यो न सनेह गम्भीर । - क घटि ए वृषभानुजा वे हलघर के बीर || (दोहा ६२) इस दोहे के भिन्न-मिन्न अ्र्धोी के लिए देखिए पुश्ष्क-पृष्ट १ १५.-१ १.७ । इधी लिए कट्टा गया है कि “इस एक छेटे-से ग्रन्थ मे इन कविरत्न ने मानो गागर से साथर भर दिया है |.... . .कविता का प्रायः केई अंग, सिवा पिंगल के, नहीं छूटा । काव्य. का यह छेटा-सा ख़ज़ाना पाठक के चकित श्रोर स्तमित कर देता है। इतने छोठे-से ग्रन्थ में हतना चमत्कार अन्य कोई भी हिन्दी-कवि नहीं ला सका |” (मिश्रबन्ध्ु)




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