साकेत का टीका | Saket Ka Tika

Saket Ka Tika by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
~ ११ ~ ~~ उचित बन जाता है |” उर्मिला बोली “तुम्हारे प्रेम की इस विचित्र रुचि की सराहना ही करनी चाहिए, परन्तु प्रेम में बुद्धि का होना क्‍या तनिक भी श्रावश्यक नहीं है !? लक्ष्मण ने उत्तर मे कहा “हे प्रिये, तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी सुन्दर मूस्ति, तुम्हारी मजुल छवि सब धन्य है। तुम्हारी श्रप्ठता को पास पाकर तो मैं भी धन्य हूँ । हे प्रिये ! मैं भी तो तुम्हारा दास मात्र हैँ | “दास बनने का प्रणय सेवी सदा |? ( प्रृ० ३० ) शब्दांथ--सरल हैं | भावार्थ--उमिला ने कहा “तुप्त यह दास बनने का बहाना क्यों कर रहे हो ! क्या अपने को दास कहाकर मुझे मी अपनी दासी बनामा चाहते হী? तुम तो सदैव मेरे देव ही बने रहो और मुझे अपनी देवी बनाए रखो |” उर्मिला इतना कहकर तनिक शात हुई | तब लक्ष्मण ने पत्युत्तर में कह “तुम्हारा कथन ही उचित है| तुम मेरे हृदय की आराध्य देवी बनी रहो और मैं तुम्हारे प्रेम का उपासक बना रं | फिर कहा 1 आश्रित वत्सले ।” ( पृ० ३१) शब्दार्थ--आर्थ्रित वत्सले-शरणागत पर अनुग्रह करने बाली | सावार्थ--लक्ष्मण ने पुनः कहा “अपने इस भक्त को कुछ वरदान भी दोगी ! हे मानिनी तुम्हारे “मान का भागी भी मैं बन सकूँ गा १? उत्तर में उर्मिला बोली “उपासक का यह धर्म नहीं होता कि वह किसी कामना को लेकर उपासना करे । उसकी भक्ति तो निष्काम होनी चाहिए ।” लक्ष्मण ने कहा “अपनी छोटी-बड़ी सभी कामनाओं को मैंने तुम्हारे चरण-कमलों पर समपित कर दिया है। वह मेरी नहीं तुम्हारी ही वस्तु है । इसलिए हे शर्णा- गतों पर अनुग्रह करने वाली देवी ! शरण सें आई हुई इन कामनाओं को ४ चाहे स्वीकार करो अथवा अस्वीकार |”? ' शत्रधारो दो न दे लो हरा | ( ४० ३१ ) शब्दाथ--शिरोरुह-मस्तक, केश समूह | पल्‍्लवपुटो-अधर सम्पुर्टो | भावाथे--अपने को लक्ष्मणजी की ओर से आश्रित बत्सले का सम्बोधन पाकर उर्मिला क्ख तीण स्वर मे कटनी है “तुम शस्त्रधारी हो और विष से बके भी हो । ( लक्ष्मण जी शेष नाग के अवतार हैं, धिष्‌ से बुके सम्बोधन 0७ ५०००./ -~-^-~~-~-~-~-~~-~---~-~-~ ~




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now