आत्म तेज | Atam Tej

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Atam Tej by आचार्य समन्तभद्र - Acharya Samantbhadra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रास्म-तेज शिक्ये शिवकोटी या মৃতা वहाँ, जनता का दुख सुनने-बाला । शिव-भक्त, न्याय-पथ का पंथी, पीता था प्रेम-सुधा प्याज्षा ॥ शिव-समंदिर कितने ही उसने नयनाभिराम बनवाये थे । उनकी विशालता के ऊपर भण्डे शिव के फदराये थे॥ बस, उन्हीं मन्दिरों के समीप, सद्दसा स्वामी जी आ-निकले । देखा खो द्रश्य खाथे-साधक, तो भूल गये संकट पिले ॥ लग गये सोचने--“कामयाब कोशिश मेरी ज़रूर होगी। दुश्व्याधि अन्त पालेगी अब, सारी तकलीफ दूर होगी ॥” यह तो वे सोच रहे मन में, थी दृष्टि घुमती इधर-उधर । यहू देवयोग की बाल एक, घटना क्रम पर जा पढ़ी नज़र ॥ शिवमन्दिर के द्वार से, भोजन का सामान। पूज्जक.ग्ण ले जा रहे, अपने-अपने थान ॥ शिव-पिरडी पर जो सरस-मधुर, नेवेय चदाया जताया, बह सभी, भोग लग चुकने पर, तकसीम कराया जाता था ॥ षटरस, य्यंजन मोदक मन, नित राज-लोक से घाते थे। शिवजी के सन्मुख रख करके सब पूज*-गण ले जाते थे ॥ यह হয ইজ स्वामीजी के मन में, यह विचार आया | “इतना भोजन मिल्न जाने पर हो सकती है निरोग-काया ॥' कह उठी भूख-रेमन, मूरख ! बदती-गंगा में कर धोले |! बस, तभी दो-क्रदम आगे बढ़, गुरुवर उपासकों से बोले ॥ “शिब-मक्तो ! क्या जानते हो पूजां का अथे। प्रभु-पूजक में चाहिये क्या होनी सामर्थ ! [ १२ ]




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