अर्हत प्रवचन | Arhat Parvachan

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Arhat Parvachan by पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ - Pandit Chainsukhdas Nyayteerth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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লগা রা” दर মা < বন্দু होना जरूरी है। संसारी जीव शुक्ल ध्यान के बल से कर्मो का संवर, /निजेरा _ ओर पूर्ण क्षय करके मुक्त होता है। संसारी का अर्थ है अशुद्ध जीब॥ “* अनादिकाल से जीव अशुद्ध है ओर वह अपने पुरुषाथ से शुद्ध होता है । यदि पहले जीव संसारी न हो तो उसे मुक्ति के लिए कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता ही नदीं है । किन्तु जैनदशेन का यह्‌ मी कहना हैः कि जीव को संसारस्थ कहना व्यवहारिक दृष्टिकोण है । शद्ध नय से तो सभी.जीव शुद्ध हैः । इस प्रकार जैन दशन जीव को एक नय से विकारी मानकर भी दूसरी नय से अविकारी मान तेता है! यदह जेन दशेन का समन्वयात्सक दृष्टिकोण है । आत्मा का आठवां विशेषण है 'सिद्ध' | इसका अथ है ज्ञानावरणादि आठ कर्मो से रहित । यह विशेषण भट्ट ओर चार्वाक को लक्ष्य करके दिया गया है । भट्ट सुक्ति को. रवीकार नहीं करता। उसके सत में आत्सा का अन्तिम आदशे स्वगे है | जो मुक्ति को स्वीकार नहीं करता वह आत्मा का सिद्ध विशेषण केसे मान सकता है? उसके मत में आत्मा . सदा संसारी ही रहता है, उसकी मुक्ति कभी होती ही नहीं अर्थात मुक्ति नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है'। चार्बाक तो जब जीव की सत्ता ही नहीं मानता तब मुक्ति को केसे स्वीकार कर सकता है ? वह तो स्वर्ग का अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करता । इसलिए भट्ट से भी बह एक कदम आगे हे । पर इस सम्बन्ध में जेन दशन का कहना है कि आत्मा अपने कमे बन्धन काट कर सिद्ध हो सकता है ।! जो यह्‌ बन्धन नदीं काट सकता वह्‌ संसारी दही वना रहता है । आत्मा का संसारी और मुक्त होना दोनों ही तके सिद्ध हैं। जेन दर्शन में कुछ ऐसे जीव अवश्य माने गये हैं जो कभी सिद्ध नहीं होंगे। ऐसे जीवों को अभव्य कहते हैं । उन जीवों की अपेक्षा आत्मा के सिद्धल विशेषण का मेल नहीं बैठता ये ही इनके साथ समन्वय है| किंन्तु यह भी याद रखना चाहिए कि उन्त जीवों में सिद्ध बनने की शक्ति अथवा योग्यता तो है ही । आत्मा का नोवां विशेषण है स्वभाव से ऊध्बे गसन! । यह विशेषण मांडलिक भ्रन्थकार को ल्क्ष्य करके कहा गया है | इसका अथ है आत्मा का वास्तविक स्वभाव ऊध्वंगसन है । इस स्वभाव के विपरीत यदि उसका गसन होता है तो इसका कारण कसें है। कम उसे जिधर ले जाता है उधर ही वह चला जाता है । जब वह सर्वेथा कमरह्वित हो जाता हैँ तव तो अपने वास्तविक स्वभाव के कारण ऊपर ही जाता है ओर लोक के अग्रभाग में जाकर ठहर जाता हैं। उसके आगे धसमोस्तिकाय नहीं होले के कारण वह नही जा सकता । इस सम्बन्ध में सांडलिक का यह कहना है कि जीव सतत অনি ~ ~. চা




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