काव्यशास्त्रीय निकष | Kavyashastriye Nikasha

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Kavyashastriye Nikasha  by शीलचन्द्र जैन - Sheelchandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(7) विचारों और कल्पनाओ' का चित्रण हो जो किसी लोकसमूह के लिए कल्पद्दुम का काम दे सके........ थोड़े हौ सगो का ग्रन्थ क्यों न हो, यदि उसमे व्यञ्जना की प्रधानता ठै, भावुकता ` उसमे छलकती मिलती है, महाकवि का कर्म उसमे देखा जाता ड तो वह अवश्य ही महाकाच्य कहा जा सकेगा, क्योंकि ग्रन्थ का महत्त्व ही उसकी महत्ता का कारण हो सकता है। श्री हरिऔधजी ने महाकाब्य में सर्ग-संख्या से अधिक महत्त्वपूर्ण भाव-औदात्त और कवि-कर्म माना है। कविवर सुमित्रानन्दन पंत ने महाकाव्य के सम्बन्ध में लिखा है-“महाकाव्य मानव-सभ्यता के संघर्ष तथा सांस्कृतिक विकास का जीवन्त पर्वताकार दर्पण होता है, जिसमें अपने मुख को देखकर मानवता स्वयं को पहचानने में समर्थ होती है ।” श्री सरामधारीसिंह'दिनकर ने महाकाव्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-“महाकाग्य की रचना मनुष्य को विफल करने वाली अनेक भाव-धाराभो के बीच सामज्जस्य लाने का प्रयास है। महाकाव्य की रचना समय के परस्पर विरोधी प्रश्नो के समाधान की चेष्टा है।... ..विश्व के महाकाव्य मनुष्य को प्रगति के मार्ग में मील के पत्थर के समान होते हें। वे व्यंजित करते हैं कि मनुष्य किस युग में कहाँ तक प्रगति कर सका है।” कवि श्री गोपालदास नीरज, ने महाकाव्य की उदभावना के सम्बन्ध में लिखा हे-“जब कवि का मानस-चषक भाव के रस से इतना भर जाता है कि वह आसब उसमें से छलक-छलक पड़ता है, तब गीत का जन्म होता है, लेकिन जब कवि की दृष्टि रूप से ऊपर उठकर लोक-मानस की भूमि “पर” से तादाम्य करने का प्रयास करती है, तब महाकाव्य का जन्म होता है। एक में अपनी रचना का व्यक्ति स्वयं होता हे और दूसरी में उसका लक्ष्य समाज और संसार होता है। इसलिए जहाँ तक गीत में तीव्र संवेदनशीलता होती है, वहाँ प्रबन्धकाव्य में एक विशद्‌ व्यापकता के दर्शन होते हैं। महाकाव्य की महान्‌ योजना के लिए एक स्पष्ट जीवन-दर्शन, सूक्ष्म-ज्ञान-दृष्टि, अनुभूतियों की एक तानता, भावना, बुद्धि और कल्पना का समीचीन सन्तुलन आवश्यक होता है।” पहाकवि रवीन्द्रनाथ अ ने महाकाव्य की परिधाषा व्यक्त करते हुये लिखा है-“मन में जब एक महत्‌ व्यक्ति का उदय है, सहसा जब एक महापुरुष कवि के कल्पना-राज्य पर अधिकार आ जमाता है, मनुष्य चरित्र का उदार महत्व, मनश्चक्षुओ के समक्ष अधिष्ठित होता है तब उसके उन्नत भावो से उदीप्त होकर, उस परम पुरुष की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने के लिए कवि भाषा का मन्दिर निर्माण करते ह। उस मन्दिर कौ भित्ति पृथ्वी के गम्भीर अन्तर्देश मेँ रहती है ओर उसका शिखर मर्धो को भेद कर आकाश मे उठता है। उस मन्दिर में जो प्रतिमा प्रतिष्ठित होती है, उसके देवभाव से मुग्ध ओर पुष्प किरणो से अधिभूत होकर नाना दिग्देशो से आ-आ कर लोग उसे प्रणाम करते है। इसीको कहते हैं-महाकाव्य ।” श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने महाकाव्य के लिए विराट चरित्र कल्पना को प्रमुख अंग माना है। समग्र विवेचन के बाद, महाकाव्य को इन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता हे-“महाकाव्य वह महाकाव्य रूप है, जिसमें व्यापक-कथानक, विराट्‌ चरित्र, कल्पना, गम्भीर अभिव्यंजना-शेली, विशिष्ट शिल्प-विधि, और मानबतावादी जीवन-द्ृष्टि से उखका रचयिता युग-जीवन के उन्नत बोध को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर प्रतिफलित करता है। संक्षेप में; श्रेष्ठ महाकाव्य की रचना पानवता के मंगलमय आख्यान और लोकमानस की चेतना के आकलन का ल क प्रयास होती है।” सत्य तो यह है कि महाकाव्य को , सार्वदेशिक एवं परिभाषा में बाँधना कठिन है, क्योंकि युग-जीवन की परिस्थितियों और सामाजिक হিতে के अनुसार ही महाकाव्य के स्वरूप, लक्षण, तत्त्व व मान्यताओं में परिवर्तन होता रहता है। फिर भौ उपयुक्त + मे महाकान्य के स्वरूप को व्यापकतम परिवेश मे प्रतिष्ठित करमे का प्रयास किया गया ।




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