श्रीरत्नकरण्डश्रावकाचार | Shri Ratnakarnd Shravakachar

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : श्रीरत्नकरण्डश्रावकाचार  - Shri Ratnakarnd Shravakachar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about सदासुखदासजी काशलीवाल - Sadasukhdasji Kaashlival

Add Infomation AboutSadasukhdasji Kaashlival

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
पं० सदासुखजीकृत देशभाषामयवचनिकासहित र्वकरंड श्रावकाचार यहां इत ग्न्थदी आदिमे स्यादमादव्िधाके परमेश्वर परमनिग्रथ वीतरागी भ्रीसमन्तमद्रस्वामी जगतके भव्यनिके परमोपकारके अधिं रत्नधयका रशो उपायस्प श्रीरल्नकरंड नाम भराषका- चारङ्‌' प्रकटकरनेके शच्छुक विष्नरदित शाखी समाप्तिरूप फल्‌ इच्छाकरता शष्ट विशिष्ट देवताकू नमस्कार करता ब्त्र कहें हें-- नमः श्रीवद्ध मानाय निद्ध ,.तकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विया दपेणायते ॥ १ ॥ अथ--श्रीवर्द्धभान तीर्थंकरके अधि हमारा नमस्कार होहु । श्री कहिये भंतरंगस्वाधीन जो অনবন্ধান। अनंतदर्शन, अरन॑तवीयं, अनंतसुखरूप अविनाशीक लक्ष्मी अर बहिरंग इन्द्रादिक देवनिकरि वंदनीक जो समवसरणादिक लक्ष्मी तिसकरि इद्धिकू' प्राप्त होय सो श्रीवद्ध मान कहिये है । अथवा अव-समंतात्‌ किये समस्त प्रकारकरि ऋद्ध किये प्रमश्चतिशयङू' प्राप्त भया है केवलक्तानादिक मान कषये प्रमाण ॒जाका सो बद्धंमान किये । शां ““भवाप्योरघ्ोपः इतस व्याकरणशास्थरङे त्रकरि कारका लोप भया है । कसा कदे भीवदधं मान मिद्धं तकलिल है आत्मा जाका, निद्ध,त किये नष्ट क्षिया है आत्मातें कलिल कहिये ज्ञानवरणादि पापमल जाने ऐसा हे । बहुरि जाकी केवलब्बानविद्या अलोकसद्ित समस्त तीनलोककू' दपणवत्‌ आचरण करे है । भावाथं--जाके केवलत्ञानविधारूप दर्पण बिपें अलोकाकाशसहित परद्रव्यनिका समुदाय- रूप समस्त लोक अपनी भूत, भविष्यत्‌ , वर्तमानकी समस्त अनंतानंत पयोयनिकरि सहित प्रति- बिम्बित होय रहे हैं ऐसा अर जाका आत्मा समस्त कर्ममलरहित भया ऐसा भ्रीवर्दध मान देवाधिदेव अन्तिम तीर्थंकर ताक अपने आवरणकपायादिमलरहित सम्यम्ज्ञानप्रकाशके अर्थि नमस्कार किया | अब आगे धके सरूपकू' कहनेकी प्रतिब्नारूप पत्र फहँ हैंः-- देशयामि समीचीनं, धर्म कर्मनिवहंणम्‌ । संसारवुःखतः ससवान्‌ , यो धरव्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ अथे--मैं जो ग्रन्थकता हूँ सो इस प्रन्थवि्ें तिस धर्मकू' उपदेश करूं हूँ जो प्राशी- निने पश्परिषर्तनरूप संसारके दुःखतें निकाल स्वर्मश्रुक्रेकि दाघारहित उत्तमसुखनि्मैं धारण करे । बहुरि कैसेक धमंकू' कहूँ हूँ जो समीचीन कहिये जामें वादीप्रतिवादीकरि तथा प्रत्यक्ष भजुमाना- दिककरि बाणा नाही भाव, अर ओ क्मेवंषनद न्ट करनेगाला है तिस पर्मकू' कहं हूँ ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now