मानस की रूसी भूमिका | Manas Ki Rusi Bhumika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
302
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| हे 4
जो कह फ्ूठ मसखरी जाना, कलियुय सोइ गुनर्बंत बखाना |”
“जे अपकारीचार বিচ कर गौरव मान्य बहु ।”
इसी प्रकार कवितावली में कवि कहता हैँ कि पापियों की मनमानी
है भौर भ्रच्छे मनुष्य बुरे फल पा रहे हूँ श्रौर ऐसा समय श्रा गया है.
कि नीच उदार श्रौर सज्जन को गाली देते हैं । सारा काम उल्ठा हो
णे
रहा है :--
“मागे पेत पावत प्रचारि पातकी प्रचंड,
कालल कौ करालता भलेको होत पोचुहे।
तथा---
छुर् वहरे को वनाय बाग लाइयत,
रूधिवे को सोइ सुसतर् काटियतु है)
गारी देत नीच हरिचंदहू द्ीचि हू को,
आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है ॥?#
इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हुए वराद्नीकोव ने
राजनीतिक उथल-पुथल और श्रशांति के साथ उस दूसरी श्रद्यांति तथा
ग्रव्यवस्था को भी लक्षित किया है जो सामाजिक तथा सांस्कृतिक
थी झौर जो देश के अपने विशिष्ट स्वरूप की रक्षा के लिए कम
महत्त्वपूर्ण न थी । भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था उन नए
पंथों के सृजन से श्रस्तव्यस्त श्रौर शिथिल हो रही थी जो इस्लामी
संस्कृति के प्रभाव-स्वरूप उदभत हुए थे। वस्तुस्थिति का संक्षेप
बितु सारगर्भित कथन करते हुए लेखक का यह उदार मत युक्तियुक्त हँ
कि “हिंदू-सभाज ने अपने को दो संकटों के बीच पाया, एक श्रोर
से पअ्रसष्य-प्रत्याचार,......जो मृसलमान शासकों की शोर से पाँच
शताब्दियों से श्रधिक धारा के रूप में प्रवाहित हो रहा था........ दूसरी
# कवितावली -- सम्पादक पं> विश्वनाथ प्रसाद सिश्र, पुष्ठ २४६ ॥
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