वाड़ चू | Vaadan Chu

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Vaadan Chu by भीष्म साहनी - Bhisham Sahni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आदमी का कभी कभी परेशान करने जगती है जथ जपने बात का काई आदमी इससे मित्रता है! मेरे चने जात के वाद भावुक्ता कया यह ज्वार उतर जायगा नार यह किर से गपन दनिक जीवन वीं पटरी पर जा जायंगा। आखिर चाय का दार सत्म हआ जौर हमने सिगरेट सुलगाया। कायाक का दौर अभी भी थाडे थाड़ें वक्‍त के बाद चज रहा था। क्ुठ देर सिगरेटो सिगारो की चचा चली इस वीय उसको पत्नी चाय वे घतन उठाकर क्चिन वी आर बढ गयी । हा, आप कुछ बता रह थ कि काइ छोटी सी घटना घटी थी वह क्षण भर वे लिए ठिठका फिर सिर टढा करके मृम्पराने लगा, तुम अपने देश से ज्यादा देर याहर नही रह इसलिए नही जानते कि पर- दस में हिल की क्या कफ्यित होती है | पहले कुछ साथ तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकल दस यारह साल बाद भारत की याद रह रहकर ফুল सताते लगी। मुझ पर एवं जनून सा तारी हाने लगा। मरे व्यवहार में भी जजीव बचपन सा आन लगा। कभी कभी म॑ कुता पाजामा पहनकर सडको पर घूमने लगता था ताकि लोगा को पता चले कि मैं हि डस्तानी हूँ भारत का रहनंवाला हूँ । कभी जोचपुरी चप्पल पहम लता जो मन लदन से मगवायी थी लोग सचमुच बडे कुतूहल से मेरी जोवपुरी चप्पल की जोर दखते झौर मुझे बडा सुर मिलता। मेरा मन चाहता कि मैं सडका पर पान चबाता हुआ निक्‍लू थोती पहनकर चलू। मैं सचमुच टिखाना चाहता था कि में भीड मं खोया अजनथी नहीं हूँ मरा भी कोई दश् है मैं भी कही कया रहनवाला हूं । परदेस म रहनवाते हिटस्तानी के दिल को जा बात सबसे ज्यादा सालती है. वह यह कि वह परदस मे एक के वाट एक सड़व लाघता चला जाये और उस क।ई जानता नही, कई पहचानता नहीं जबकि अपने वतन म॑ हर तीसरा झ्ात्मी वाक्फि होता है। दीवाली के दिन मैं घर मे मामबत्तियाँ लावर जता देता हेलेन के माये पर बिदी लथाता, उसकी माप में लाल रग भरता। मैं नस वात के जिए तरस तरस जाता कि रक्षा- वबाधन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथी स मुर्भे राखी वॉधे आर कहूँ मेरा वीर जुग जुग जिये !” मैं वीर शव सुन पान के कमर आ हरामजा<




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