अनुसन्धान और आलोचना | Anusandhan Aur Aalochana
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
158
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कविता क्या है ? নু
निश्चय ही कविता नहीं है क्यावि वण समीत झौर लय-सगीत दोवा ही निरथवः
पदावली ममी सम्भव हैं ।
तो फिए वास्तव म कचिता क्या है? इन सभी त्वौ का समवय कविता
है | यह समसन भर्वाली ही कविता है। सौदय चेतगा कविता ही है, ऽत्ति
वक़ता कविता नहीं है प्र्यातरयास लकार कविता नटी रै, वण-सगीत्त
कविता नही है, चौपाई कौ लय कवितानहीदहै। दा सवका समजितस्पदही
कविता है--प्रथात् रमशीय भाव, उवित-बचित्य और बण लय-सगीत तीनो
ही मिलकर वविता का रूप धारण करत है। भय फिर यह प्रश्न उठता है वि'
নয कविता के लिए न्न तीनो की स्थिति श्रनिवाय है? क्या इनम से किमी एक
का प्रभाव कविता के अस्तित्त मं बाधक होगा ? उदाहरण वे लिए क्या
विना रमणीय माव-तत्व कै शयिता नहीं हो सबती ? इसका उत्तर दने सं पूवर
रमणीय शन्द का प्मानय स्पष्ट करना गवहयक है । --रमशणीय का झथ দঈলল
मधुर नहीं है--कोई भी साव, पिस যি লহ रसाने को शवित, हो,
रमणीय है। इसी दृष्टि मे क्रोध, ग्लानि, शोक आ्रादि भावां वे भी নিহীথ ঘন
रमणीय हो सकते हैं, दाव्य मे हात ही हैं। में यह बहता चाद्रता हेपि एक
तो वेवल प्रेम, श्रद्धा, विस्मय भादि सुखद भाव ही रमणीय नहीं हैं, शौक,
ग्लानि, क््रमप झादि ग्रप्रिय भाव भी रणसीय हो सउते हैं । मरे, भाव ये सभी
स्प रमणीय नही हाते, श्वगार जसे मधुरतम भाव वैभी शनम स्प सवथा
प्रमणीय ग्रार प्रकाव्योचित हो सकते हैं हाने है । जीवन थी इन अनुभूतिया
के वे ही रूप रमणीय होते हैं जिनके साथ सहृदय वा मन तादात्म्प स्थापित कर
से, जिनमे सहृदय वी प्रातवृ त्तियास सामजस्य स्थापित घरन दी शर्पषित
हो । भाव वी रमणीयता इसी का नाम है। तो वया इस रमणीय भावध-तत्त्व
के प्रशाव मे दतिता नहीं हो सपत्ती ? भेर। स्पष्ट उत्तर ई--नही, इसके अभावं
में जी चमलार भापक्ञी नित रक्ता है वह वौद्धिक चमत्वार हा हो सकता है,
जस पहेली के समाघार झांदि से मिलता टै। तथावशथित चित्रवाच्य म इमीवी
उपर्ला प हाती है । वौद्धिक चमत्कार बचिता का পল नही है, अत तिस ওকি
स बेबल वौह्िर चमलाए प्राप्त होता है वह कविता नरो । अव दूसरा तत्त्व
लीविए---उवित-वचिश्य | क्या उक्ति-वचिच्य के विना कविता हा सकती है?
হম সপ্ন के उत्तर दे विषय से बडा मतभेद हे। भ्राचाय शुक्ल जँतसे रुसच
प्राचाय वा हट मत है कि हाँ, हो रुवती है। प्राचीन रतवादी भ्राचार्यों का इस
विय म यही मव था--क्दाचिद् नय जी कौ यही वारणा है। पररतु मुभे,
खदह् दै भान दवधनें श्रादि ररध्विवादीचो च्वनि ছাতা একতলা লী
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