सार्वदेशिक वर्ष | Saarvadeshik Varshh

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Saarvadeshik Varshh by महर्षि दयानंद सरस्वती -maharshi dayanand saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ कवक 18९५ सर्यक्रेशिक सानयादिक | अध्यात्मिक जगत को आयं समाज को देन डा० प्रेसचसद भीधर महि दयनिम्द है आमंतमाजः की स्थापना वेदिक धिड्धास्तों के प्रतिपावन, प्रचार-प्रसार के लिए की । फरुत खेद है कि आज भी जामंपभाज को सीग एक घने विशेष के वक्षधर के कप मे देखते हैं भौर इसके महान कान्तिकारी सामाजिक, सास्कृतिक, अष्ट्रीय और आध्यात्मिक रूप को नहीं समर पाए। जायेंसमाज की स्थोपेभा के समय इसका मुक्य उददेश्य निम्न क्षब्दों में स्पष्ट कर दिया गया था-< १ “जा समाजनों सुस्य उद्देश ए छं के वेदविदित धर्मतस्वो प्रत्वेक समासने मास्क करवा जये तेनो प्रचार देश-प्रदेश करवाते यवाद्षगित प्रयत्न करवो 1 जामेंसमाज के मुल नियर्ों में पहला था--''सब मनुष्यों के हितायय आार्यशमाज को अवदय होना खादिए 1 इसको व्याख्या मे लिखा गया “हस समाज से घर्म अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों की ब्राप्ति अनुष्यों को यथावत्‌ होगी। अतएय आर्यावर्तादि देक्षस्थ मनुष्य जाति मात का हित इस समाज से निरिचत होना है ।” आध्यात्मिक जयत को आयस्माज की देन का सीधा सा अर्थ है महूति दयानन्द की देन । हम इन पक्तियों से आर्येंसमाज की आध्या- हिमक देन या मास्यताओ का स्पष्ट सरल औौर तुलनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे । महृति दयानन्‍्द को आध्यात्मिक देन का कितना भारी प्रमाव पडा, यह महान रवोन्द्रनाव टैगोर के श्रद्धाउजलि के झब्दो से स्पष्ट है -- “देव दयानन्द ते मारतीय जीवत की विविधता को सुक्ष्मदृष्टि से देखा था । उन#ा आह्वान सत्य और पवित्रता का आह्वान था क्योकि छश समय ठक भारतवासी मिथ्या विश्वासो को जडता और गोरब- पूणे अतौत के प्रति अज्ञान के जाल में फस चुके थे । आर्यंसमाज के ऋन्तिकारी आन्दोलन द्वारा भारतवाधियों को अन्ध भिथ्याविश्वासों की जडता से भुक्त करये का कस भर अेतवाद का दक्षंमो का मुरप विषय है सृष्टि जिज्ञासु को बाष्वात्म षी गोद करना । सूट प्रक्रिया का वर्णन करने में दक्षंत्रों के मध्य रुपाकारों वे अवेक ऐसे मतों को उमारा जिनसे यह तथ्य स्पष्ट हीं को बजाय ओर ममेले में पड गया । इन सभी मर्तों को सक्षप में कैत कोटियों भें विभाजित किया जा सकता है । १--छमस्त विश्व का भूल एक मान तत्त्व जड है चतन नाम का पृथक तथा स्वतन्ब सत्ता रखने दाला कोई वत्त्व नही है । हय विचार है किमूल म वस्विविक तत्व एक मात्र चेतन है। तै अतिरिक्त अन्य कोई तस्व अपनो अतिरिक्त स्वतत्र सता रखता। मूल चतत तत्व केबल लीलावश इस स्प मे वुष्टि- गोचर है, जिसे मिथ्या समझता चाहिए । ३--तोसरी विचारधारा है जिसके अनुश्शार जड और चतन दोनों प्रद्यार के तत्थों का अस्तित्व वास्तविक हैं। दोनो के सहयोग से श्रृष्टि गादि जयत के कार्य का निर्वाह होता है । जक हेन इन तीनो का पृथक-पृथक विफलेषध करेंगे। वेदिक काल मे जाये छोगो का परमात्मा की सत्ता मे पूर्ण विदास था और उस परम पुरुष की उपासना तथा तदसुशूल अपने जीवन में सभी कार्यों क्म | ,॥ :.8;4 সঃ कालमन्तरमे एक देखा तीव्र मक्युदक कृहस्वति हुआ, जिसने परमात्मा की उपासता को ইন आर क खा को स्वीकार करते से इस्कार कर पैदशा । सराफा विश्वास भा कि द्मां के किसी मी तस्व की বুধের সুতির ই অহ অপ मात इतना हो है जिता कि प्रत्यल औैं+ हाहें ऑॉकव-फिली मी सता का अस्तित्व नहीं है। यह युवक अतथा अकाग्ोनी चः कि कठी विवारकारा के अनुखार तत्कासीन शगाय भी दो विषारथारातों में विभाजित हो भया। दोनों क्यों का आंगन दर्शव और तबबुरूर करभों का अनुष्ठान थी भिन्न-चिन्न हो या का यथार्थ विवेतन करके २-- महषि दयानन्द जन्म दिवस पर हरियाणा सरकार का संशोधित आदेश कऋमाक २७/५/१३-२-जी एस मुख्य सचिव, हरियाणा ठश्कार (१) क्षती विनावाध्यक्ष हरियाणा । (২) মাবুদ, बम्नाला, हिठार, रोहतक तथा सुड़ याद सण्डल । (३) छ्भी उपंधुक्त, इरियाजा | (४) खी उप मडल अधिकारी (ना) हरियाणा । (५) रजिस्ट्रार, पथ्याव तथा हरियाणा हाई कोट तथा सभी जिला एव सत्र स्यायाधीश, हरियाणा 3 दिनाक्ष २२ फरवरी १६९४ बदं १९६४ के दौरात स्वामी दयानन्द सरस्वती, के जन्म विवस ५ बरस, ११९४ के स्थान ण्य ७ मार्थय १६९४ को अशकास करवने के बारे में ॥ मुझ निर्देस हुआ है कि वर्ष १११४ के दौरान हरिवाया सरकार के कार्यालयों हेतु धार्वअनिक्त अवकाल तुकि ओ अधिसूचना ऋमाक २७/५/१५३ -२ जी एस गा विमाक 1२-११ १९६२३ द्वारा जारी की थी, क्रम खल्या १० पर दर्छदी गई मकि दवानभ्द सरस्वती की जन्म तिकि ४ वपल १९९४ & स्थात पर ७ माच १६९९४ पढ़ा जाए । बासदेव बना अवर सचिव, सामान्य प्रशासत | कृते मुख्य सचिव हरियाणा सरकार | गया । यही वर्ग देव” ओर ' असु२” नाम से प्रसिद्ध है। इस विधार- धारा के प्रधान प्रधारक ओर प्रचारक के रूप मे चार्वाक का ताम आता ह । उनङ़ दनो को चार्वाक--दशंन! या बाहुस्पत्व दशनः भा कहते हैं । सास्यदर्शन के अन्तगेंत भी एक वाष॑गन्प आचार्य की झास। है जो परमात्मा को सत्ता को स्वोकार नही करती । इसलिए साहय दर्शन को केवल प्रकृतिवादी दशन मी कहते है । बौद्ध दर्शन इस मुख्य विचारधारा से प्रभावित हुआ है । पाइचात्य दर्शन जिसका हेगल ओर कालंमाक्स डैेसे प्रबुद्ध मनीबियो ने जो की मूलरूप से भोतिवादी थे, प्रतिपादन किया । यह भी मूलखूप से आषिमौतिक विचारधारा से पल्लवित और पुष्पित हई । भौतिकवाद का विचार इसी भ्रकृतिवादी विचारधारा से प्रभावित था। लोकायत दर्शत इसी का नाम है। एस दर्शन में जो भी असगतिया है उनका कोई युक्तियुकत उत्तर आज (तक नहीं मिला । यह दाह निक कसोटो पर टिक नहीं पाता । नास्तिकता इसी विचार को देन है। इसी विचारधारा मे केवल नाम परिवतेन मात्र है 'जड' के स्थान पर वेतन के अस्तित्वं को स्वीकार किया है । वौद्ध मम्तभ्यो का आधार यही है । ईएवर की सत्ता को कही भी स्पष्ट रूप से नकारा तो नहीं गया परन्तु ऐसा लगता है कि वेदिक विचाराधारा मे जो काखान्तर मे व्यवहारिक चुटिया आ गई थी बौद्धदर्शन इसकी प्रति- क्रिया मात्र ही है। परन्तु कालास्तर में ईक्वर को ओर विमुश्षता के जव परथज्नव्ट होये का भय उपस्वितहुभा भौर बाध्या स्मिक जीबन জীব জম पतन की ओर उन्मूल हुआ तो इसकीभी प्रति- क्रिया हरं गौर यह गाना जवे लया कि चेतत सता का अस्तित्व तो है पर वही व्रह्म है, शेष सब अशानमूलक अम है मिथ्या है। इस বিদ্মাহঘাহা কী আজহান্চবান্যা্ ने सम्पुष्ट किया। (कक्ष )




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