जिनका में कृतज्ञ | Jinka Me Kratagya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२, महादेव पंडित ६
उनको अपनी फूआ बतलाया। खेलनेकेलिये वहाँ लड़के भी कई थे। फूआकी
देवारानीका लड़का यागेश मुझसे दो ही तीन महीनेका छोटा था। यही लड़का मेरा
घनिष्ठ मित्र बना | यह मिंत्रता साथ उड़नेमें भी बहुत समय तक चलती रही। ;
महादेव परिडतका घर बहुत सम्पन्न था। तीन-चार आंगनवाली बखरियाँ थीं,
तीन-चार जोड़े बैल थे, गायें और भसं भी थीं। परिडत अब अपने घर हीपर
विद्यार्थियोंको पढ़ाते थे। जिस समय ( १६०२ ३६० )की मैं बात कर रहा हूँ, उस समय
उनकी पाठशाला आरम्मिक अ्रवस्थामें थी। वह उस समयको प्रथाके अनुसार पहले
व्याकरणमें सारस्वतका पूर्वाध और चन्द्रिकाका उत्तराधे पढ़ाते, इसके बाद सिद्धान्त-
कौमुदीमे हाथ लगवाते । सिद्धान्त-कीमुदीमें तद्धित प्रकरण तक शायद ही कोई विद्यार्थी
पहुँचता | उसके सामने बनारसका आकर्षण आ जाता, जहाँ दो दिनमें आसानीसे पैदल
पहुँचा जा सकता था। उनके कई विद्यार्थी इसी तरह बनारस चले गये। व्याकरणके
अतिरिक्त जोतिस पढ़नेवाले भी उनके पास आते थे, जो अधिकतर शीघ्रबोध और मुहू्त-
चितामणि तक ही पढ़ते थे | इससे पंचांग देखना, जन्मकुण्डली बनाना शथ्रा जाता था ।
किसीने बहुत किया, तो “ताजिकनीलकण्ठी”?के कुछ पन्ने पलट लिये। महादेव
परिडतकी यह शिकायत वाजिब थी, कि मैं पढ़ी हुईं विद्याका बहुत उपयोग नहीं कर
सकता |
दो-तीन दिन तो ऐसे ही बीते। फिर एक दिन फूफाजीने सारस्वत पढ़ाना शुरू
कर दिया । स्मरण-शक्ति तीत्र थी और अभी किसीने कानभ यह मन्तर नहीं पढ़ा था,
कि रद्दू पीर होना बुरा है। सारस्वतके एक या दो पन्ने मैं पढ़ गया। परिडतजी मेरी
प्रगतिसे बहुत खुश थे । उर्दू से वंचित न हो जाऊँ, इरुकेलिये उन्होंने दर्जा एकमें
पढ़ाई जानेवाली उदूकी पुस्तकके भी कितने ही पन्ने पढ़ा दिये। संस्कृतके परिडत होते
वह उदू' भी जानते थे, यह उस रुमयकेलिये आश्चर्यकी बात थी | वह और शायद मैं
भी समने लगा था, किं अ्रब आगे बढ़नेका मेरा यही रास्ता होगा | पर, में तो नानाका
था, इसलिये उन्हींके बतलाये रास्तेपर चलनेकेलिए मजबूर था। दो हफ्तेसे ज्यादा नहीं:
शुजरे होंगे, कि पन्दहासे आदमीने आकर कहा : बीमारी चली गईं, वहाँ बुलाया है। उसी
समय नहीं, बल्कि पीछे भी बछुवल मेरे लिये आजमगढ़का सबसे प्रिय गाँव बन गया
ओर उसे जब-जब भी छोड़ना पड़ता, मुझे दुःख होता ।
मैं फिर अब रानीकीसरायके मदरसेमें उदू पढ़ने लगा। संस्कृतसे तो मानो
सदाकेलिये बिदाई ले ली थी। तब भी इम्तिहानकी छुट्टियोंमें जब में कनैला जाता, तो
प्रायः €र बार दो-तीन दिनकेलिये बछुवल पहुँच जाता। इस आवा-जाहीमें मैंने
महादेव परिडतकी पाठशालाको बढ़ते देखा। यह वह समय था, जबकि संस्कृतकी
परीक्षाओंका रवाज अभी-अभी बढ़ने लगा था। बछुवलमें विद्यार्थी अपने घरसे आटा-
दाल बाँध कर लाते और अपने शुरुके पास रहकर पढ़ते। महादेव परिंडत विद्यामें भी
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