श्रावकाचार संग्रह भाग - 1 | Shravakachar Sangrah Bhag - 1

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Shravakachar Sangrah Bhag - 1 by हीरालाल सिद्धान्तालंकार - Heeralal Siddhantalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ आवकाचार-पंग्रह विधयाजाबज्ञातीतो निरारम्भोज्परिप्रहः । शानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रद्ास्थते ॥१० इदमेवेहशं चेव तस्वं नान्यस चान्यया । हत्यकस्पाऽऽयसाम्मोवत्सन्मारगेऽसंश्षया रचिः ॥११ कमंपरवशे साम्ते दुःखेरन्तरितोदये । पापओ्ीजे सृखेऽनाथा शद्धानाकांलणा स्मृता ॥१२ स्वभावतो5शुच्चो काये रत्नत्नरयपवित्रिते । निजुंगुप्सा गुणप्रीतिसंता निविचिकित्सिता ११३ कावये पयि दुःखानां कापयस्थेऽप्यसम्मतिः । असम्पृक्तिरनुत्कीत्तिर पूढा हृष्टिरुच्यते ॥१४ शुदं शुद्धस्य मागंस्य बारालक्तजनाभयाम्‌ । वाच्यतां यतप्रमाजन्ति तद्दन्तयुषगहनम्‌ ॥१५ वर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां घर्मवत्सले: । प्रत्यवस्थापन प्राः स्थितीकरण पच्यते ॥ १९ स्वपृथ्यान्‌ प्रति सद्भावसनाथाप्पेतकैतवा । प्रतिपत्तियंयायोग्यं बात्सल्यमभिलप्यते ॥१७ अज्ञानतिमिरव्याप्तिसपाकृत्य यथायथम्‌ । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाद्ः स्थात्यभावना (८८ तावदञ्जनचोरोऽद्धे ततोऽनन्तमती स्मृता । उद्दायनस्तुतोये5पि तुरीये रेबती मता ॥१५ मानादिक प्रमाणोंसे जिसमें कोई विरोध नहीं आता हो, जो प्रयोजन भूत तत्त्वोंका उपदेश करता हो, सवं प्राणियोंका हितक्रारक हो ओर कुमागंका विनाशक हो, उसे सत्याथं शास्त्र मा आगम कहते हैं ॥९॥ सत्याथं गुरुका लक्षण--जो पंचेन्द्रियोंकी आशाके वशसे रहिध हो, खेती-पशुपाकून आदि आरस्मसे रहित हो, धन-धान्यादि परिग्रहसे रहित हा. ज्ञानाभ्यास, ध्यान-समाधि और तपदवरणमे निरत हो, एसा तपस्वी निर्ग्नन्थ गुरु प्रणंसनीय होता है ॥१०॥ अब सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका वर्णन करते हुए सर्वप्रथम निःशंकित अंगका लक्षण कहते हैं--तत्त्व अर्थात्‌ वस्तुका स्वरूप यहो है, ऐसा ही है, इससे भिन्‍न नहीं और न अन्य प्रकार से संभव है, इस प्रद्मार छोह-निर्मित खज्ु आदि पर चढ़े हुए पानीके सदुद्य सन्मार्गमें संशय-रहित अकम्प अविचल रुचि या श्रद्धाको निःशंकित अंग कहते हैं ॥१६१॥ दूसरे निःकांकषित अङ्का लक्षण--संसारका सुख कमंके अधीन है, अन्त-सहित है, जिसका उदय दुःखो अन्तरित है, अर्थात्‌, सुख-काल के मध्यमे भी दुःखोका उदय आता रहता है, और पापका बीज है, ऐसे इन्द्रियज सुखमें आस्था और श्रद्धा नही. रखना, अर्थात्‌ संसारके सुखकी आकांक्षा नहीं करना, यह निःकांक्षित अद्भ माना गया है ॥१९॥ तीसरे निर्विचि- कित्सा अज्भुका लक्षण--स्वभावसे अपवित्र किन्तु रत्नत्रयके धारण करनेसे पवित्र ऐसे धार्मिक पुरुषों के मलिन शरीरको देखकर भी उसमें ग्लानि नहीं करना और उनके गुणोंमें प्रीति करना निविचि- कित्सा भङ्गं माना गया है ।१२॥ चोथे अमूढुदृष्टि अंगका लछक्षण--दुःखोंके कारणभूत कुमार्गमें और कुमार्ग पर स्थित पुरुष में मनसे सम्मति नहीं देना, कायसे सराहना नहीं करना ओर वचनसे प्रशंसा नहीं करना अमूढ्ुदृष्टि अंग कहा जाता है ॥१४॥ पांचवें उपगू हन अ गका लक्षण--स्वयं शुद्ध निर्दोष सन्‍्मागंकी बाल ( अज्ञानी ) और अशक्त जनोंके आश्रयसे होने वाली निन्‍्दाको जो दूर करते हैं, उसे ज्ञानी जन उपयूहन अ'ग कहते हैं ॥१५॥॥ छठे स्थितीकरण अ गका लक्षण--सम्यर्दशेन- से अथवा सम्यक-चारित्रसे चलायमान होनेवाले छोगोंका धमंवत्सछ जनोंके द्वारा पुनः अवस्थापन करनेको प्राज्ञ पुरुष स्थितीकरण अग कहते हैं ॥१६॥ सातवें वात्सल्य अगका लक्षण--अपने साधर्मी समाजके प्रति सद्धावसहित, छल-कपट.रहित यथोचिते स्नेहमयी प्वृत्तिको वात्सल्य ज ग कहते है ५॥१७॥ आस्ये प्रमावना अ गक्रा लक्षण--अशानरूप अन्धकारके प्रसारको यथासंभव उपायोके द्वारा दूर करके जिन शासनके माहात्म्यको जगतमें प्रकाशित करना प्रभावना भंग है ॥१८॥ उपयुंब्त आठ अगोमें से प्रथम अज्ञ मेँ अञ्जन चोर, दूसरे अगमें अनन्तमती, तोसरे अगमें




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