पवयणसारो | Pavayanasaro

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Pavayanasaro by श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ 21५ ] के मुखकमल से निकली हुई उन १८० गायाभो के अथं को भले प्रकार श्रवण कर प्रवचन के वात्सल्य से प्रेरित होकर श्री यतिवृषभाचार्य ने उन पर छह हजार श्लोक प्रमाण चूणीसूत्र की रचना की। दिगम्बर परम्परा मे जो आचार्य श्रुतप्रतिष्ठापक के रूप मे हुए उनमे श्री गुणधर आचार्य और श्री धरसेन आचार्य प्रधान हैं, क्योकि आचायें धरसेन को द्वितीय তা पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था और श्री गुणघर आचार्य को पूवंगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था । दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षट्खण्डागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सीधा सम्बन्ध श्री महावीरस्वामी की द्वादशागवाणी से है| ये ग्रन्थराज दक्षिण में सुरक्षित थे और जो दक्षिण की यात्रा को जाते थे उनको इन ग्रन्थ- राजो के मात्र दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता थ।। श्री प० टोडरमल जी जैसे विद्वान्‌ को इनके दशेन तक भी प्राप्त न हो सके, किन्तु हषं की बात है कि इन प्रन्थराज का प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित श्रावकाश्रम सोलापुर तथा वीरशासन सघ कलकत्ता से हो चुका है । श्री वीरसेन महान्‌ आचार्य हुए हैं, जिन्होने करणानुयोग को भी तक की कसौटी पर लगाया है। उन्होंने घट्खण्डागम के पाच खण्डों पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण और कषायप्राभृत की चार विभक्तियो पर २० हजार शलोक प्रमाण टीका रची । रेष कषायप्राभृत पर उनके शिष्य श्री जयसेन आचाये ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसको पूर्ण किया। षट्खण्डागम की टीका का नाम घवल है जो हिन्दी अनुवाद सहित १६ भागो मे प्रकाशित हो चुकी है। कषायप्राभृत की टीका का नाम जयधवल है जिसके सम्पूर्ण सोलह भाग प्रकाशित हो चुके हैं। षट्खण्डागम का छटवा खण्ड महाबध भी सात भागो मे ज्ञानपीठ नामक सस्था से प्रकाशित हो चुका है। यद्यपि इन ग्रन्थो का प्रकाशन सन्‌ १६३४ से प्रारम्भ हो गया था, परन्तु बहुत कम व्यक्ति सुक्ष्मद्ष्टि से इनका अध्ययन कर सके । श्री शातिसागर आचार्य की परम्परा मे आचार श्री शिवसागर, आचार्य धर्मसागर के सघ के आचायंकल्प श्री श्रुतसागर जी आदि मुनि तथा आथिका विशुद्धमति जी आदि आ्यिकाओ ने इन ग्रन्थराज का अध्ययन बडी लगन और निष्ठा से किया और इन्ही ने बध-स्वामित्व विचय तीसरे खण्ड मे अनेको सशोधन प्रस्तुत किये हैं, जिनको अनुवादक विद्वानों ने भी सहर्ष स्वीकार किया है । यहां यह शका हो सकती है कि सर्वत्र हन महान्‌ ग्रन्थों की स्वाध्याय क्यों नहीं हुई ? तो इसके समाधान मे यह कहना अनुचित होगा कि इन ग्रन्थराज का विषय बहुत गहन है, क्योकि इनका सीधा सम्बन्ध श्री महाबीर स्वामी की द्वादशाग वाणी से है। यदि इन ग्रन्थराजो का अध्ययन सर्वत्र हो जाता तो नवीन सम्प्रदायो का कोई स्थान न रहता, क्योकि इनमे सात तत्त्वो का इतना सूक्ष्म व विशद विवेचन है कि अन्यथा कल्पना हो नही सकती । श्री गुणघर, श्री धरसेन, श्रो पुष्पदन्त, श्री भरूतबलि के पश्चात्‌ श्री कुन्दकुन्द आचार्य हुए हैं, उस समय अग या अग व पूर्व के एक देश का ज्ञान लुप्त हो चुका था। श्री कुन्दकुन्द आचार्य का वास्तविक नाम श्री पद्मनन्दि था। किन्तु जन्मभूमि के कारण वे कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुए । उनके ससय के विषय मे विद्वानो मे मतभेद है। अत उनके समय का यथार्थ निर्णय नहीं किया जा सकता, फिर भी षट्खण्डागम की टीका श्री कुन्दकुन्द आचाये द्वारा रची गई इससे यह प्रतीत होता है कि उनका काल ईसवी की दूसरी शताब्दी का पश्चिम भाग है।




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