पुरानी राजस्थानी | Purani Rajasthani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
219
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about एल॰ पी॰ तेस्सितोरी - L. P. Tessitori
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)टः
२. अपभ्रंश के दो स्वर-समूहों अइ, अऋड के उद्इच रूप सुरक्षित हैं
अर्थात् इनमे से प्रत्येक समूह के दो स्वर तब तक दो भिन्न अक्षर माने जाते
थे; जैसे---
अप० अच्छइ >पप्रा० प० रा० अछुइ ( आदिच० )
अप०#उण्हआलउ > प्रा० प० रा० ऊण्हाज्नड ( ,, 2
आधुनिक गुजराती मे श्र संकुचित होकर ए यर अड हो जाता
है, तथा आधुनिक मारवाड़ी मे अइ से मौर अड से ओओ । इस तरह
गुजराती में अछुइ ठे छे मोर उण्हालउ से उनालो हो जाएगा ।
जर्हो तक भपभ्रश से प्राचीन पथिमी राजस्थानी के अंतिम रूप से सवध
विच्छेद कर लेने के समय का संबंध है, यदि हम उसे तेरहवी शताब्दी या
उसके आसपास निश्चित करे तो सत्य से बहुत दूर नहीं हैं। इस निर्णय का
एक कारण तो यह है कि पिगल अपभ्रंश बारहवी या अधिक से अधिक तेरहवी
शताब्दी इंस्वी के बाद बोल-चाल की भाषा कही नहीं रही; ओर दूसरा यह कि
मुग्धावबाघ मोक्तिक का रचनाकार १३६४ ई० है जो प्रार्ची न-पश्चिमी-
राजस्थानी के निर्माण कार की पेक्षा पूणवः विकसित अवस्था का प्रतिनिधि
करता हे । मुग्धावबोधमौक्तिक मे प्रास्त अनेक भ्याकरणिक रूपो से
प्राचीनतर रूप पद्रहवी शताब्दी में रचित कविताओं में सुरक्षित हैं ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्राचीन-पश्चिमी-राजस्थानी सूछ रूप
में अकेली एक भाषा का प्रतिनिधित्व करती है जो गुजरात आर राजपुताना
दोनों में प्रचलित थी | परठु गुबराती ओर मारवाडी के रूप में प्राचीन
पश्चिमी-राजस्थानी के विभ्वज्ित होने की प्रक्रिया कब शुरू हुई, इसका
निश्चय अब तक की प्राप्त सामग्री के आधार पर करना कठिन है; परंतु
इतना निश्चित है कि यह ब्रिल्याव क्रमशः हुआ और इस बिलगाव को
पूर्णता तक पहुँचने में काफी छंब्रा समय छगा | जिन विशेषताओं के द्वारा
मारवाड़ी गुजराती से अलगाई जाती है, उनमें से एक है सामान्य वर्तमान
काल को उत्तम पुरुष, बहुबचन की क्रिया की अन्त में-आँ का आना जो
कि महमदाबाद में प्राप्य 8० १५०८ की वसंतविल्लास नामक रचना में
मिलता है 1*१ इसे पता चलता है कि पन्द्रहवों शताब्दी तक मारवाड़ी के
निर्माण में काफी प्रगति हो गई थी | परंतु इससे बहुत पहले मी प्राचान
पश्चिमी-राजस्थानी की मारवाड़ी प्रवृत्तिको छश्नित कर लेना संभव है--म्ुख्यतः
११. एच० एच° भ्रुव, वही, पृ० ३२०, ३२३, ३२५
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