समय और हम | Samay Or Hum
श्रेणी : राजनीति / Politics, विज्ञान / Science
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
660
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ११ )
ऋषियों का उन्मुक्त चिन्तन
भारत में धर्म और दर्शन का आरम्भ वहुदेववाद और वहुऋषिवाद से हुआ
इन्द्र, वरुण, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का मौलिक रूप अभौतिक नहीं, घतांशझ में
भीतिक है। विभिन्न भौतिक तत्त्वों एवं हलूचलों को ही वहाँ देवी-देवता के रूप
में अंगीकार किया गया है। उनको लेकर जो कहानियाँ गूंथी गयीं, वे उनकी मूल
प्रकृति एवं आचरण से निरपेक्ष नहीं हैं। पीराणिक युग में निश्चय ही देवी-देवताओं
का भीतिक रूप बहुत अधिक ओझल वन गया । कितने ही साम्प्रदायिक ,सांस्क्ृतिक
कलात्मक, आशिक तत्त्व इनमें आ मिले और सामयिक समस्याओं की दृष्टि से
इनमें यथासमय उलटफेर किये गये। इस प्रकार औपनिपदिक युग के वाद से वैदिक
देवी-देवता विशुद्ध भौतिक न रहकर भाव-कल्पना-निर्मित इप्टसिद्धि के रूप
(6४६65) वनते चदे गये । पर मौपनिपदिक युग तक के इन देवी-देवत्ताओं
का जौर उनकी अर्चा में किये जानेवाले यज्ञों का वौद्धिक-वैज्ञानिक महत्त्व स्पप्ट
है। उपनिपत्कार ऋषियों ने जिस सर्वोच्च देवता परमत्रह्म की स्थापना की, वह
भी पैग़म्बरवादियों का पिता या वादशाह खुदा नहीं है; वल्कि वह परमतत्त्व है, जो
अन्य सभी भौतिक तत्त्वों से सुक्ष्मतम है; उन सबमें निहित, व्याप्त और उन सबसे
झक्तिशाली है। वह शून्यवत् है, अरूप है और रूप अर्यात् भौतिक पिण्ड उसमे से
बने हैं, यह नहीं कि उसने वनाये हैं। उपनिपदों का ब्रह्म व्यक्तिमय (5507160)
एवं भूत-निरपेक्ष नहीं है और उसे वीड्धिक-वैज्ञानिक प्रयास का विपय बनाया जा
सकता है। देवी-देवताओं और परमत्रह्म के उपनिपत-काल तक के भौतिक-वैज्ञा-
निक स्वरूप और आगे उनके अर्च नात्मक, सांस्कृतिक एवं पौराणिक स्वरूप का विकास
भारत की वबहुऋषि-प्रथा के कारण ही संभव हो सका। देवताओं की वहुसंख्या और
ददोन, नान-विन्नान की सनन्त शाखाएँ, जिनका विकास भारत में हुआ, भारतीय
परम्परा में वर्तमान मुक्त विचारणा और मुक्त प्रयास की प्रमाण हैं।
दर्शन का दिद्या-परिवर्तंन
पर वैदिक औपनिपदिक काल की सर्वग्रासी उच्छलित जिज्ञासा आगे बढ़कर
तथाकथित अध्यात्म में ही निवद्ध क्यों हो गयी और उसने जगत्, शरीर और गौति-
कता के प्रति पूर्ण निपेव का रुख क्यों अपना लिया, यह भारतीय धर्म, दर्शन और
इतिहास की सबसे बड़ी समस्या हैं। भारतीय मानस ने किस दिन और किस
प्रेरणा के वच्न होकर जगन्माया, जगन्मिथ्या की ओर पहला कदम वढ़ाया, यह् अन्नात
है। पर वैदिक, औपनिपदिक दर्शन-विचारणा से एकदम विपरीत, कर्म, शरीर और
जगत् को दुःख का मूल माननेवाली, वेगवती बौद्ध -जैन धारा मात्र प्रतिक्रिया नहीं
है, आकस्मिक नहीं है। उसका मूल कहीं सुदूर अतीत में है, इससे इनकार नहीं होना
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