वर्णी वाणी | Varni vani

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Varni vani by विधार्थी नरेन्द्र - Vidhyarthi Narendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(+ ५ कल्यांण-कुटार निरन्‍्तर आहुलित रहता है। अतः ऐसी भावनाकों अपनाओ जो यह बिक्कत भाव मिट जावे | (२६। ७1४७ ) १६. जो मनुष्य परको प्रसन्न केकी चेष्टा करता है बं अपनेकी कल्याण पथसे दूर करता है । कल्याणका पथ तो निवृत्ति मे है । निवृत्ति मागे बही है जो पर पदारथमे श्रातमतुद्धि मिटवे | पर पदाथेकी परिणति पराधीन है, उपे श्रपनाने की चेष्टा करना अन्याय है | अन्यायसे आत्मकल्याण होना कठिन है । ( २४।८।४७ ) १७. कल्याणक मागे त्यागही मे है। हम लोग जो कहते हैं यदि शतांश भी उसका पालन कर तव कल्याणका मागं युलम हो जावे । (१५९४७) १८. संसार दु/खका पिण्ड है, इसमे कल्याणका मार्ग प्राप्त करना सरल नहीं ओर यदि जगतसे पीठ फेर ले तब सहज ही है। अभिप्राय ही तो बदलना है, वह स्वाधीनताकी वात है। स्वाधीनता स्वतन््रतमे है । (७१०४५) १६. बहुत मलुष्योंकी दृष्टिआत्मकल्याणकी ओर है परन्तु जो प्रयास है बह अनुकूल नहीं। परसे चाहते हे यही बड़ी त्रुटि है। इपे त्याग देवे आजही कल्याण पास है । টি ( १०१०४७ ) २०. आत्मकल्यगकी चचोंतों सब करते हे और बढ़े-बढ़े ५ देते है परन्तु कल्याणमा्गेमे गमन करनेवाले धिरते ही हे।




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