समयसार अनुशीलन | Samayasar Anushilan

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Samayasar Anushilan by डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल - Dr. Hukamchand Bharill

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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7 कलश १ जीवद्रव्य में ही पाया जाता है, पुदगलादि अजीव द्रव्यो मे नहीं। इसीकारण यह चित्स्वभाव, भगवान आत्मा का लक्षण है, पहिचान का चिन्ह है । इसके माध्यम से भगवान आत्मा को अजीवादि परद्रव्यो में भिन्न जाना जा सकता है। तत्वार्थसूत्र में ज्ञान-दर्शन उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा गया है ।* जानना-देखना जीव का स्वभाव है । जानने-देखने को ही चेतना कहते हैँ; इसीकारण यहाँ चित्स्वभाव शब्द का प्रयोग किया गया है । यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जानना-देखना जीव का स्वभाव तो है; पर वह किसको जानता-देखता है अथवा किसको जानना-देखना उसका स्वभाव है? इसी के उत्तर मेँ कहा गया है कि भगवान आत्मा सब पदार्थो को जानने-देखने के स्वभाव वाला है, वह सर्वज्ञस्वभावी है । आत्मख्याति के परिशिष्ट में जिन ४७ शक्तियों का निरूपण है, उसमें सर्वदर्शित्व ओर सर्वज्ञत्व शक्तियों का भी निरूपण है। यद्यपि यह पर्याय की बात लगती है; क्योंकि जानने-देखने की क्रियातो पर्यायमें ही होती है, तथापि यह पर्यायस्वभाव की बात है, प्रगट पर्याय कौ बात नहीं; सर्वता की बात नही, सर्वस्षस्वभाव की बात है । यहाँ जिस समयसाररूप भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है, बह सर्वज्ञपर्याय सहित भगवान आत्मा कौ बात नहीं है, अपितु सर्वज्ञस्वभावी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की नात है । यहाँ सर्वज्ञस्वभाव की बात करके सर्वज्ञाभाववादियों का निराकरण भी कर दिया गया है। यहाँ एक प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि ऐसा भगवान आत्मा जाना जा सकता है या नहीं ? सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में तो जाना ही जाता १ आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २ सूत्र ८




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