जीवन - साहित्य भाग - 2 | Jivan - Sahity Bhag - 2

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Jivan - Sahity Bhag - 2  by श्रीनिवास आचार्य द्विवेदी - Shrinivas Aacharya Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ सय-निरंय देख कर सत्यान्वेषण के सम्बन्ध मे निराशा उत्पन्न होती है। तथापि सत्यान्वेषण की यात्रा किसी क्षण भी बन्द नही होगी, क्योकि वही जीवन-यात्रा का प्रधान उददेश है । सत्यान्वेषण ज॑वबन-यात्रा का प्रधान उद्देश होने के कारण हम अपनी जीवन-विषयक कल्पनां के अनुसार सत्य का निणैय करने का प्रयत्न करते है । छदं लोग वाद्य जीवन को अयपिक महत्व देते है, तो बहुतेरे आन्तर-टृत्ति को । कितने ही सामाजिक निर्णय को ही भ्रमाण मानते ह, तदहो दूसरे कितने ह लोग व्यक्ति- गत अन्त.स्फूति को सर्वोपरि मानते दै । इन दोनो मे से कौनसा पक्त श्रेष्ठ है यह अभी निश्चित नही हुआ किन्तु जिस दिनि वह निश्चित हो जायगा उसी दिन परम सत्य की खोज भी हो जायगी। इस भेद के अनुसार श्नन्त.स्फति को अधिक महत्व देनेवाले मनुष्य कहते हैं, किहरएक व्यक्ति को निष्पक्षता से जो सत्य लगता है, बही उसके लिए सत्य है | सारा संसार एक ओर हो और वह अकेला दूसरी ओर रहे तो भी वह अपने को जो वात सत्य मादस हो उसीको पकड़े रहे, सत्थ कभी धोखा नही देवा । दूसरा पक्ष कहता है कि हरएक मनुष्य-हरएक व्यक्ति कितना अठ्पज्ञ होता है ? उसका अनुभव इतना मयादित होता है कि, व्यक्ति की सत्य- विषयक कल्पना पर आधार रखना मिथ्याभिम्गन है । यह जगत्‌ सत्य है, इस जगत्‌ का व्यापार सत्य है, हमारी क्षणिक कल्पना असत्य है। व्यक्ति मरणाधोन है, पर समाज उसकी तुलना में अमर है। व्यक्ति मोहावत दै, उसकी चपेन्ता समाज में अधिक योगयुक्त रहता है । इसीसे तो संसार का व्यवहार पंचो के निर्णय द्वारा चलाया जाता है। आप कहते है कि सत्य परम मन्नल है। यदि




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