भारतीय आधुनिक शिक्षा | Bharatiy Adhunik Shiksha

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Bharatiy Adhunik Shiksha by एस॰ के॰ बन्ना - S. K. Banna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सामाजिक मूल्य निर्माण एवं पाठ्य पुस्तकें हरिश्चंद्र व्यास प्राध्यापक राजकीय उच्च अध्ययन शिक्षा संस्थान बीकानेर - 334001 . यदि कहा जाए करि आज की शिक्षा प्रणाली परीक्षा ओर पाठ्य पुस्तकों पर आधारित है तो अतिशयोक्ति न होगी । स्वतंत्र भारत मे पाठ्य पुस्तकों के निर्माण, उनकी प्रामाणिकता, आकर्षण, पठन-सुलभता तथा सुग्राहयता को लेकर अनेक गवेषणाएं हुई हैं। विभिन्‍न स्तरो पर विचार विमर्शं के फलस्वरूप पाठ्य पुस्तकों मे विषय वस्तु, प्रस्तुतीकरण तथा बाहुय आवरण की दृष्टि से अनेक नए प्रयोग किए गए हैं ताकि उन्हें विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम बनाया जा सके । प्रस्तुत लेख में लेखक ने विविध उदाहरणों द्वारा यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार विद्यालय स्तर पर प्रचलित हमारी पाठ्य पुस्तके अपनी विषय वस्तु फे माध्यम से छात्रौ मे सामाजिक मूल्यों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं । शो की अग्नि परीक्षा में खरे उतरने वाले मूल्य ही शाश्वत और चिरंतन होते हैं । वे कल भी प्रासंगिक रहेंगे। ये मूल्य मानवता की मणियां हैं, आत्मा के वैभव है ओर दिव्यता के प्रकाश स्तंभ हैं। शिक्षा का सरोकार समाज से है। यदि उसे इन जीवन मूल्यों का सहारा मिल जाए तो ' | उसके नाभिकुण्ड में अमृत छलक उठेगा । ऐसी शिक्षा पीढ़ियों को संस्कारित केर सकती है । शैशव में बच्चे का मन एकदम निर्मल होता है- एक कंचनवर्णी ज्ञील की तरह । न इसमे कीचड़ होता है ओर न जलकूंभी । साफ स्फटिक होता है उसका मन । उसमें ताजगी,ऊर्जा, जिज्ञासा होती है और वह संसार को समझना चाहता है । इस समय कच्ची मिटटी मे जो संस्कार पड़ जाएं वे जीवनपर्यन्त बनें रहते है । यदि उसके मानस पर सत्यभ्रेम, परोपकार জী অন্তিলা की छाप पड़ जाए ; नम्रता पवित्रता और सहानुभूति का अंकन हो जाए ; सेवा,सादगी और करुणा जैसी भावनाएं अंकुरित हो जाएं ; देश-प्रेम, त्याग और. बलिदान जैसे विचार घर कर लें तो ये संस्कार अल्पकालिक न होकर दीर्घजीवी होंगे ; जीवनपर्यत उसका साथ देंगे । ये वे मानव मूल्य हैं जिनका कोई विकल्प नहीं । बच्चे के विकास के साथ-साथ मूल्यों के चिंतन का भी विकास होता है । मूल्यो की तालिका इतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी आस्थाएं हैं और जब आस्था होगी तो बच्चा हो, किशोर हो या युवा - वह हमारी सांस्कृतिक धरोहर को सर्वोच्च सम्मान देगा ; लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता की भावनाओं को अपनाएगा ; स्त्री-पुरुषों के बीच समानता के भाव रखेगा ; सामाजिक समरसता और . सीमित परिवार का पृक्षधर बनेगा , वैज्ञानिक दृष्टि रखेगा ओर पर्यावरण के संरक्षण के लिए हर संभव चेष्टा करेगा । शांति, सहचर्य ओर विश्व कल्याण उसके आदर्श होंगे । पर्न उठता है कि क्या पाद्य पुस्तके इन जीवन मूल्यों का संचार करने में समर्थ हैं ? और यदि हैं तो किस हद तक? उनकी पहुंच कहां तक हैं और वे कहाँ तक बच्चों को प्रभावित कर सकती हैं? सवाल पाठ्य पुस्तकों की सामंर्थ्य का है । प्रलट कर जवाब दिया जा सकता है कि यदि अन्य (श्रेष्ठ) पुस्तकें ' ऐसा कर सकती हैं तो पाद्य पुस्तकें क्यों नहीं कर सकतीं? उनमें कुक रीः विशेषताएं है जो अन्य पुस्तकों में प्रायः नही ' होतीं । एक तो यह कि वे सर्वसुलभ हैं ; गांव-गांव; ढाणी-ढाणी में बच्चे -बच्चे के हाथ में है । प्रसार और प्रभाव साथ-साथ नहीं चल सकते हों ; ऐसी तो कोई बात नहीं है । बाते तो पाठ्य सामग्री की है ; प्रस्तुति की है। वह अच्छी हो तो प्रभाव - भी वैसा ही होगा और यदि अच्छी न हो तो पाद्य-पुस्तक




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