सनोवर की छाँह | Sanovar Ki Chhanh

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Sanovar Ki Chhanh by विष्णु शर्मा - Vishnu Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ओर कम्पन था और नदी के सीने पर तैरता हुआ कुदासा। सारे माहोल में एक ठंडक थी--एक बेहोशी थी--एक ख़ामोशी थी ओर शमशेर के सारे शरीर पर एक थकान थी--ज़्िन्दगी को कर देने वाली लम्बी भारी थकान | प्रकृति का यदह्द रूप कितना मधुर था--कितनी शांति थी, कितना सूकून था--कुछ एऐेसा था कि जी. चाहता था कि बस उस चाँदनी के साथ--उस कोहरे के साथ--उस अकाश और उस हवा के साथ एक हो जाय--इस सब में हमेशा के लिए इव जाय } श्राखिर जिन्दगी क्यो--वह कशमक्रश श्रौ वह संघ क्यों--वह लड़ाई क्‍यों कि जिससे शरीर पर हज़ार घाव हो जा्यँ- बह विद्रोह क्‍यों ? ज़िन्दगी का वह तमाम स्वॉग जो उसके: चारों तरफ हो रहा है--बह जाल जो व्यक्ति ने अपने चारों तरफ बिछा रखा है और जिसमे उल्क कर बह स्वयं गिर पड़ता और घायल हो जाता है--यह सब उसे ब्रिल्कुल व्यथ लगा इस समय | उसके जख्मी व्यक्तित्व के अन्दर दबी हुई किसी चीज़ ने उस समय यह चाहा कि सारी दुनिया एक स्वर्ग हो--उसमें मिठास हो--कि मुक्त इन्सान उगते हुए सूरज के सिन्दूरी उन्माद में नहा कर ज़िन्दगी के तराने गा सके-- साँक की सुनहरी घाटियों में से लौते हुए! पंछियों के गीत उसे थपका कर सुला दें और उसके सपनों में चाँद की वंशी की घुन हो और आसमान के नीले फृ्श पर रात के घुँधरुश्नों की कंकार और थिरकन ! जाड़े की बरसात के बादलों का एक बहुत बड़ा ठुकड़ा आकाश पर छा गया । शमशेर ने एक लम्बी साँस छोड़ी | तिलस्म ओर जादू बहुत देर नहीं चलते--एक भ्रम पर ज़िन्दगी की चट्टान नहीं खड़ी की जा सकती । वह पूरा मधुर स्वप्न--उसकी कल्पना में समाया छुआ संसार और प्रकृति के रूप का वह चित्र--बादल की छोटी-सी काली परछाई' के नीचे दब कर जैसे कुम्हला गया | बस ! उस स्वप्न में --उस जादू में--- ' इतनी ही असलियत थी ! सौन्दर्य संसार में रह नहीं सकता क्योकि इन्सान अपना लाभ बनाने से अधिक मिटाने में समझता दै। हाँ, ~ १४ --




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