इनसे | Inse

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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লয় न ~ खडी बोली का ढाँचा ही भ्रधिक काम का होगा, और उन्होंने उसे वेखटके ले लिया तथा माँजकर अपने काम का वना लिया। नवयुग का यह दिमागी या बौद्धिक साहित्य अ्रपनी अभिव्यक्ति के लिये प्रवाहपूर्ण, समर्थ एवं व्यापक श्रयोवाली शब्दावली की अपेक्षा करता है, जिसका निर्माण काल, , विनिमय, सघप तया पुष्ट परम्परा के साय हुत्रा करता है। यह एक लम्बी साधना ह! इसके लिये खरी स्वाभाविकवा का मोह छोडना पडता है, कृत्रिमता-पाश के आवश्यक वन्वन स्रं स्वीकार करने पडते है, भावों का नित्य नवीन रूपो के साँचे में ढलकर हंसते-हँसते अग-भग करवा देना पडता दै, तव कटी 'साहित्यिक रूप' का वरदान मिलता है। यह व्यापार बहुत सस्ता नहीं श्रौर न कम कप्टसाध्य ही है। हिन्दी की किसी भी वॉली श्रववा भारत की किसी अन्य अचलीय भाषा में श्राधुनिक साहित्य की पश्रनुपज का कारण हिन्दी को समझ कर उसे उसकी उन्नति या विकास का वाघक समझना अनुचित भ्रम है। किसी बोली या भाषा को साहित्य-सुष्टिं किसी व्यक्ति या सस्या की इच्छा या अनिच्छा पर निर्मर नही हृश्रा करती, वरन्‌ वह्‌.तो उसकी निजी योग्यता एव सामयिक प्रेरणा के श्रनृसार ही हुआ्ना करती है। हिन्दी की विविध वोलियो तया म्नन्य हिन्दीतर हमारी मापा्नो का, प्राचीन साहित्य, जिसका उल्लेख वार-वार किया जाता है, प्रधानत रसात्मक्त ही था সীং ভল कोटि को साहित्य श्राज भी रचादही जाता होगा तथा मचिप्यमेभी स्वा जायया । उनकी श्रपनी कटावतो एव परैलियो कौ नृष्टि होती रही दै श्रौर सदा होती रदेगी । परन्तु जिसे दिमागी या वौद्धिक साहित्य कहा गया है, उसका सृजन समी वोलियो में श्रयवा सभी भापाग्रो मे देखने की आशा सदिच्छा से श्रधिक शौर कुछ नहीं है। इस समय सारी भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही सवसे भ्धिक प्रगतिशील त्तवा युग-प्रवाह के साथ चलनेवाली मानी जाती है। सस्कृत का प्राचीन साहित्य तथा आधुनिक ससार के वौद्धिक योगदान का जितना श्रश हिन्दी के कोप में आ चुका है, उतना प्रमीतक अन्य किसी भी भारतीय भाषा को प्राप्त नहीं हुआ । किन्तु इतने पर -मी भाए दिन हमारे विद्वान एवं आचार्य यही कहते चुने जाते हैं कि समार के-साहित्य का तो प्रश्न ही क्‍या, अज्जरेज़ी के मुकाबले में भी हिन्दी-साहित्य भ्रभी चहुत पिछडा हुआ' है श्रौर भाषा की कमजोरी [ ६€ 7]




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