लघुसिद्धान्तकौमुदि | Laghusiddhantakaumudi

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Laghusiddhantakaumudi by श्री एम. एस. कुशवाह - Sri M.S. Kushwaha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( & ) पाणिनि के कुच सूत्रों में आलोचनात्मक दृष्टि से कमी पाकर वररुचि ८ कात्या- यन ) ने अपने ष्वातिंक*-पाठ' की स्चनाकी; जो कि पाणिनीय व्याकरण का एक अस्यन्तं महस्वपूर्णं अङ्ग दै । सम्प्रति यह वार्तिक-पार स्वतन्व-रूप से उपलब्ध नीं होता । (महाभाष्य में कार्यायनीय वार्तिकों का उल्लेख है, किन्तु इससे उनकी निश्चित संख्या का पता नहीं चलता महाभाष्यकार ने कात्यायन के वातिकं के साथः ही साथ अन्य वार्तिककार के वचर्नो का मी उल्लेख कियाहै।† फिर भी कुछ विद्वान के अनुसार वररुचि ने अपने.वारतिकों म पाणिनि के लगभग १५०० सूत्रों की आलोचना की है | बररुचि ने केवछ दोप दिखाकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिभ्री नहीं समझी । उस दोष को दूर करने के लिए सत्र में क्या परिवर्तन करना चाहिये--इस बात को भी उन्होंने बतछा दिया है | इस प्रकार उनकी आलोचना सिद्धान्त की टष्टि से न्याय- संगत है | किन्तु अनेक स्थलों पर उन्होंने पाणिनि को समझने में भूल की है और कहीं-कहीं पर उनकी आरोचना अनुचित भी है। इस अनौ चित्य की ओर महाभाष्यकार पतन्जलिने हमारा ध्यान आङ्ृष्ट किया है } फिर मी पाणिनीय व्याकरण की परम्परया मे कात्यायन का बहव ही महच्वपूं स्थान है } उनके वार्तिकपाठ के विना पाणिनीय व्याकरण अधूरा ही रहता | + वरदचि ने वातिक-पाठ के अतिरिक्त स्त्वगयिदणः नामक एक काव्य कीमी ` रचना की थी, जिसका उल्लेख सूक्तिमुक्तावरी, शाङ्गधरपद्धत्ति आदि अनेक अन्थौँमें मिलता है। ^ ५ पतञ्जलि वरसुचि के वाद्‌ पाणिनीय-व्याकरण-परम्परया म तीसरा मह्वपूणं नाम पतज्ञछि का है। (महाभाष्य के “अरुणद्‌ यवनः साकेतम्‌ , अरुणद्‌ यवनो माध्यमिकाम्‌ ( २.२.१११ ) ओर दद पुष्यमिरं याजयामः ( ३.२.१२३ ) वचर्नो फे आधार पर कुछ लोग उनका समय २०० ई० पू० मानते हैं, किन्तु श्रौ युधिष्ठिर मीमांसक ने * पाराशर उपपुराण में वातिक का लक्षण इस प्रकार दिया है--“उक्तानक्तइ- रक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते 1 तं अन्यं वार्तिकं प्राुर्वा्तिकज्ञा मनीषिणः 1: ८ अर्थात्‌- जिस ग्रन्थ में सूजकार द्वारा उक्त, अनुक्त और दुरुक्त विषयों पर विचार किया गया हो, उसे 'वातिकः कहते हैं ) + देखिये-- संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास'-प्रथम भाग (प्र० सं० ), छू० २१९६-१७ )




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