हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन | Hindi Jain Sahitya Parishilan

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Hindi Jain Sahitya Parishilan by नेमिचन्द्र शास्त्री - Nemichandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दाशनिक जाधार २५ प्रादुमाव हो जानेपर आत्मा स्वोन्सुखरूपसे अवृत्त करती है, जिससे राग- द्ेषके सरकार शियिल और श्रीण होने ভ্যান ই বখা হলসবনঈ परिपूर्ण होनेपर आत्मा परसात्मा अवस्थाको प्राप्त हो जाती है। अतः आत्म-शोधनमे सम्यक्‌ श्रद्धा और सम्बग्शानके साथ सदाचारका महत्त्वपूर्ण स्थान है | जैन-सदाचार अहिसा, सत्य, अचोर्य, अल्मचर्य और अपरिग्रह रूप है। इन पॉचो तर्तो्में अहिसाका विशेष स्थान है, अवशेष चारो अहिंसाके विभिन्न रूप हैं| कपाय और प्रमाद--असावधानीसे किसी जीवको कष्ट पुँचाना या प्राणघात करना हिसा है, इस हिंसाको न करना अहिंसा है। मूलतः हिंसाके दो भेद हैं--द्रव्यहिंस और भावहिंसा। किसीको मारने या सतानेके भाव होना भावहिंसा और किसीकों मारना या सताना द्वव्यहिसा है। भावोके कछुपित होनेपर प्राणघातके अभावमें भी हिंसा-दोप छगता है | अहिंसाकी सीमा शहस्थ और मुनि--साधुकी दृष्टिसे मिन्न-मिन्न है । गहस्थकी हिंसा चार प्रकारकी होती है--संकव्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी | बिना अपराधके जान-बूझकर किसी जीवका वध करना सकलपी हिंसा है। इसका दूसरा नाम आक्रमणात्मक हिसा भी है | प्रत्येक गहस्थ- को इस हिसाका त्याग करना आवश्यक है। सावधानी रखते हुए भी भोजन वनाने, जल भरे, कूटने-पीसने आदि आरम्भ-जनित का्येमि होनेवाली हिंसा आरम्मी; जीवन-निर्वाइके लिए खेती, व्यापार, शिल्प आदि का्यमिं होनेवाली हिसा उन्ोगी एवं अपनी या प्रकी रभाके लिए होने- वाली हिंसा विरोधी कही जाती है| ये तीनों प्रकारकी हिंसाएँ रक्षणात्मक है। इनका भी यथाशक्ति त्याग करना साधकके लिए आवश्यक है। ध्वय जियो और अन्यको जीने दो” इस सिद्धान्त वाक्यका सदा पालन करना सुख-शान्तिका कारण है। राग, द्वेष, शणा, मोह, ईर््या आदि विकार हिंसामे परिगणित है। जैनधर्मके प्रवर्तकोने विचारोकी अहिंसक बनानेके लिए स्थाह्मद-विचार समन्वयका निरूपण करिया है । यहं सिद्धात आपसी मतभेदं अथवा पश्षपात-




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