श्रीहरि विजय | Marathi Shrihari Vijay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७) महत्त्व मानते ही हैं, फिर भी उनके अनुसार, ये वातं विना हरिभक्ति के की जाएं, तो पूर्णतः व्यर्थ हैं। इस दृष्टि से वे भवित को ही सर्वोपरि मानते . हैं। वे इस बात पर बल देते हैं कि यह भक्ति निष्काम हो । वे चाहते नही कि भक्त घर-वार का त्याग करके वन आदि का आश्रय करके रह जाए वा संन्यास ग्रहण करे। श्रीहरि-विजय मे उन्होंने दिखाया है कि किस प्रकार गोपियाँ अपना-अपना कार्य करते समय श्रीहरि को हृदय में धारण करती थी अथवा भगवान के स्मरण मे लीन रहते हुए अपने-अपने नित्यकर्म को करती रहती थी। इस प्रकार कवि ने निष्काम कर्मयोगाशित भक्ति-मार्ग का ही प्रतिपादन किया । श्रीहरि-विजय की (मराठी) भाषा प्रासादिक है। उसे जन साधारण आसानी से समश्च सकते है । उपमा, रूपक तथा दृष्टान्त आदि अलंकारों से वह विभूषित हैं। इसके लिए “ओवी ” छत्द प्रयुक्त है । श्रौकृष्ण-सत्यभामा, सत्यभामा-दासी के संवाद मामिक है। पात्रों की चरितेगत विशेषताएँ सुस्पष्ट रूप में चित्वित है। इस ग्रन्थ में वीर, वात्सल्य, भक्ति, मधुरा भक्ति जैसे रस परिपुष्ट है। श्रीहरि-विजय नामक एवं गुणविशिष्ट अपने काव्य-ग्रन्थ की साहित्यिक तथा साधनात्मक महत्ता का गान कवि ने स्थान-स्थान पर किया है। उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता । (ख ) यह्‌ अनुवाद भाषाई सेतुकरण के हेतु प्रतिष्ठित * भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ ३ ! के प्रकाशन-आयोजन के अन्तर्गत मराठी श्रीहरि-विजय का यह हिन्दी गद्यानुवाद प्रकाशित हो रहा है। इसके विषय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाए- (अ ) भुवन वाणी दृष्ट ' के अन्य ग्रन्थों की भाँति, इसमें भी मूल कृति अविकल, सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत की गयी है। हमने उसके मराठी शीर्षक “ हरि-विजय ” के स्थान पर * श्रीहरि-विजय * का प्रयोग किया है । ( आा ) मराठी लेखन-प्रणाली (वर्तती आदि) के विषय मे महाराष्ट्र सरकार, महाराष्ट्र में स्थित विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र साहित्य परिषद आदि द्वारा अब विशिष्ठ नियमावली निर्धारित की गयी है। उसके अनुसार अनुच्चरित अनुस्वार, अधं-अनुस्वार सूचित करनेवाले चिह्त अब प्रयुक्त नही किये जाते। उसी प्रकार कवि, पद्धति, वस्तु, साधु जसे संस्कृत तत्सम शब्दों के अन्य लघू स्वर को दीं मे परिवत्तित करके (कवौ, पद्धती, वस्त, साधू जेसा) लिखा जाता है। चूँकि ग्रन्थ प्राचीन है, और ऐसे ग्रन्थ




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