दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण | Digambar Jain Sinddhant Darpan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
334
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इस लिखान से यद्द बात स्पष्ट सिद्ध दो जाती है
कि-यह दूसरी पक्ति अश्मादेवादुद्व्यद्नीणा निे-
त्तिः सिद्धयेत' सिर्दधांत वाक्य दे । इस पक्ति को
सिद्धात वाक्य समझ कर द्वी शद्धुकार शक्कर करता
है कि--
इतिचेत--त सवासः्त्वादप्रत्ययाख्यान-गुण रिथि-
ताना सयमानुपपत्ते भावसयमस्तासा सबाससामापि
झअविरुद्ध, ।
इस्त बड़ो शङ्खा पंक्ति मे--“न! शब्द का सम्बन्ध
ईअनुपपत्ते ” क्रिया के साथ द्ै, क्योकि 'न! झव्यय
है और क्रिया विशेषण भी है इसलिये 'अलुपपत्ते !
कदन्त किया के साथ न' शब्द को सयोजित करने
से 'नानुपपत्ते.' ऐसा शब्द द्वो जाताडे [फर उस शङ्का
वाक्य का अथ इतिचेत्-यदि ऐसा है तो वस्त्र सद्दित
होने से पचम गुणस्थानवतिनी ल्िियोके सयम
असिद्ध नहीं दे, क्योंकि भाव सयम उनके वस्त्रसद्वित
होने से भी विरुद्ध नकी पडता हि अर्थात् उनके वह
बन जाता है ।
इस शङ्काका समाधान श्री वीरसेन स्वामी ने
दिया दै कि--
न तासा भाग्सयमोउश्ति भावासयमाविनाभा-
মিনস। धूपादानान्यथानुपपत्ते:?
अथात उनके (द्रव्यस्रियो के) भाव सयम नहीं
होता क्योकि भसयम् क। अविनाभाबी वस्त्र का उन
के प्रया दे ।
फिर यागे चौदह गुणस्थानो को लेकर নানী
হান্কা की दहि बह सभ्यक्त मागंणा, केत्रालुगम,
स्पशानुगम, कालानुगम, भन्तरानुगम, भावानुगम
श्याद् मनुष्य प्रह्पणा के स्थलों को देखकर दी शड्का
(६६]
स्पष्ट है ।
भव यक्के भगेके भर्थात् चौदह गुणस्थान
परक शङ्खा खमाधान से यह् बात माङम होती द कि
यदि सूत्र में 'सञ्जद' पद् होता तो वादी 'सझद! पढे
को लेकर ही शङ्काकूरता तथा श्री बौरसेन स्वामी
भी सूत्र गत 'सझ्द” पद के होने पर द्रव्य झरी के
चौदद्द गुणरथान क्यों न स्वीकार कर लेते, जबकि वे
आष पद्धति से समाधान कर रहे हैं ।
उन सभी बातो से स्पष्ट म्म होताहि कि सूत्र
मे सद्द शब्द् नही है भोर यकष का कथन गाबस्षी
का न द्ोकर द्रव्य स्त्री का ही है ।
इस स्थक्ष का अन्य समाघान-- ताड़पत्र प्रतियों
में “निवृत्ति' शब्द न द्दोकर “नेति भोर निश्वृति,
ये दो श्रतियों के अज्ञग अलग (एयक एयक) शय
हैं इनमे से भी किसी का मोक्ष रथ नहों ध्वोता फिर
भी दम थोड़ी देर के लिये 'तुष्यतु सबज्जनः” इस
सौद्दादिक न्याय से इन तीनों में से किसी शब्द के
होने पर उसका मोक्ष अथ मान लें जेसे कि कोई
शुष्क बेैयाकरणी सिद्धात शारत्र गत अथ फी और
कोष गत अर्थ की अवद्देलनना कर फेबल सानुपसर्ग
धातुज व्युत्पत्तिक अर्थ खेंचावानी से कर लेते हैं. तो
भी श्रपना जो सैद्धान्तिक अभीष्ट दै उसमें किसी
प्रकार की बाघा नहीं भाती । कारण सूत्र ६३वा के
भाष्य में जो -- हुस्डाबसपिण्या रीषु मम्यम्टश्य
किन्नोधद्यन्ते! इस पक्ति फरसे जो शह्वा उठाई गई है
वह सम्यक्त्व फो क्षेकर के अपयांप्त अवस्था सम्बन्धी
शहा दै। उसका जो समाधान झआाष शब्द व्वारा
दिया गया है ब्रह सूत्र गत “पर्याप्त! शब्द को क्त्ष्य
करके द्वी दिया गया दै यद्द बात सुस्पष्ट दै। परन्तु
की गई दै यह बात बद्दा की घबकत़ा टीका से सूत्रमें ल्री फे पर्याप्त भवरथारें 'असव्जद सम्माइट्ठि'
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