जड़ की बात | Jad Ki Baat

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Jad Ki Baat by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ जड़ की बात दया का दावा नहीं हो सकता । मरजी हैँ कि दयावान दया करे । मरज़ी नहीं हैं तो दया न करने के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता । प्र्थात्‌ यह प्रइन नहीं है कि दया आदमी में क्‍यों नहीं रही । आप मानते हैं कि किसी के दिल में दया होती तो वह उस अधमरे आदमी का कुछ उपचार करता । पर मुभे इससे सन्तोष नहीं है । उस श्रादमी के उपचार के लिए दयावान व्यक्ति की ज़रूरत हो और हममें से हर कोई उस तरह के उपचार में सचेष्ट न हो, यह स्थिति ही मेरी चिन्ता का विषय है । इस स्थिति में जरूर कोई बड़ा दोष है। दयाल होने के कारण ही में उस ग़रीब के काम आ सकता हूं, समझदारी के कारण नहीं, आज का यही हाल हैं । उस ग़रीब को बचाकर क्या होगा ? सेकडों-हजारों मरते हैं। श्रजी छोड़ो, अपना काम देखो । इस फर मे लगोगे, इतने कुछ ্সীহ कमाई का काम ही न करलो । यह प्रादमी मर जायगा तो किसीका क्या नुकसान होगा ? इससे समझदारी यह है कि दया में न पड़ा जाय । यह सच ही है श्रौर में इससे सहमत हूं । जहां दया और समभ का विरोध हो वहां में समझ के पक्ष में हूं। दया कच्ची भावुकता । समभ- दारी वह जमीन है जहां पेर टिकता हैं। हम नहीं मांग सकते कि हर कोई दयावान हो । पर समझदार हर किसी को होना चाहिये । दया में गिरकर लोग फ़कीर हो गये हे । घर-घाट के नहीं रह गये, बारह बाट हो गये हें | कोई भला ऐसे बना है ? सब बिगड़ ही हैं | महापुरुषता का लक्षण गहराई से देखें तो दया से अ्रधिक अ्रदया (निस्पृह्ठा) है दथा वह्‌ उतनी ही पालते हैं जितनी समभदारी में निभती है । में भ्रन्तः:करण की सच्चाई से कहता हूं कि दया की प्रेरणा मुझे सच्ची प्रेरणा नहीं मालूम होती । श्रौर श्रगर उस भूखे, कंकाल इन्सान के वहीं सड़क की धूल में पड़े रहने का कारण सिर्फ इतना होता कि आदमी में दया नहीं रह गई, तो मुझे यह लेख लिखने की प्रवृत्ति न होती। पर সা লী मुझे इसी पर विस्मय हे कि समभदारी हमें यह समभाती मालूम होती हैँ कि हमें, ज़िन्दा प्रादर्भियों को, उस मरते हुए प्राणी के भंझट में




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