आत्म प्रबोध [भाषा टीका] | Aatma Prabodh [Bhasha Teeka]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
370
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाषा टीका । ( ११)
प्रथम प्राप्त किया है सम्यक्त को जिन जीव ने सम्यक्त को त्याग करके मिथ्यात्व में चला
गया वहां पर फ़िर भी सबे उत्कृष्ट स्थिति की कर्म प्रकृति को बांध लेवे अब सिद्धान्त
1 का अ्भिमाय दिखलाते हें मंठी भेद करके सम्यक्ती मिथ्यात्व में चला भी गया तोभी
उत्कृष्ट स्थिति का व॑न्ध नहीं करे सम्यक्त के विचार में बहुतसी चरचा है परन्तु ग्रन्थ
| ঘর जाये इस कस्ते नहीं लिखा और ग्रन्थान्तर से देख लेना | अब कहते हैं कि कितने
॥ प्रकार का सम्यक्त होता हैं ऐसी शंका करने से उसका समाधान करते है ॥
| गाथा-एकविह १ दुविह २ तिंविह ३ चउहा ४ पंचविह्द दशविह सम्म॑ ॥
होई जिणएणाय गेहिं. इयभणियं शंतना एऐिहिं॥
| झ्थ--एक पभकार का सम्यक्त दो प्रकार का सम्यक्त तीन प्रकार का चार प्रकार
| का पांचभकार क्रा या दश भकार का सम्यक्त यावत अनंत ज्ञानियों ने कहा है अब यहां पर
| एक प्रकार का -सम्यक्त किसे कहते हैं के वल तत्व रुची रूप सम्यक्त सबेज्ञों का कहा
हुआ जा जीवादिक पदार्थों के विषय सम्यक्त सिद्धाव रूप तत्तों को कहते हैं उसको
1 ऐक प्रकार क्रा सम्यक्त कहना चाहिये, अब दो प्रकार का सम्यक्त दिखलाते हैं द्रव्य
| करके या भाव करके जानना वहां पर 'विशुद्ध विशेष करके शुद्ध करदिया है मिथ्वात्व
पदगं क्रो जिसने उसको ভ্য सम्यक्त कहते हैं फिर जिसके आधार भूत से पैदा हुआ
॥ जिनोक्त वच्त रुची का परिणाम जिसको भाव सम्यक्त कहते हैं फिर भी विशेषता
॥ दिखलाते हैं जो परमार्थ को नहीं जानता है ऐसा भव्य जीव को जिन वचन का तत्त्व
॥ सिद्धान होना उसको द्रव्य सम्यक्त कहते हैं ओर फिर जिस जीव को परयाथे का ज्ञान
होते उसको भ्री भाव सम्यक्त कहना चाहिये तथा निश्वय और व्यवहार भेद करके दो
| प्रकार का सम्यक्त होता है वहां पर ज्ञान एक, दर्शन दो, चारित्र तीन ये तीन मह नो
| आत्मा का परिणाम है उसको निश्चय सम्यक्त कहते हैं ज्ञानादिक परिणाम से आत्मा
मिन न है इस वाश्वे आत्मा ही निश्चय सम्यक्त है वही ग्रन्यान्तर में दिखलाया है ॥
श्लोक-आत्मईव दर्शन ज्ञानं चासि निस्थ वायतेः। `
यत्त ॒दात्मक एवै स शरीर मधितिश्टति ॥१॥
अर्थ--आसत्मा ही दर्शन और ज्ञान है चारित्र भी आत्मा के आधीन है जो कुछ है
सो शरीर को धारण करने वाला आत्मा ही है फिर भी कहा है कि निर्य करके देव
भी निसपर्क्ष भया था या वह स्थिती खरूप बो जीव षी है तथा निश्चय करके शुरू री
न
4
1
|
1
User Reviews
No Reviews | Add Yours...