प्रलय वीणा | Pralaya Veena
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
162
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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सोयी आज्ञायें उठें जाग, रोमों में तन के जगे आग
युग-युग से कोलित जिव्हा में जग उठे अचानक प्रलय-राय
कवि की राष्ट्रीयता मानवता की गोद में प्रतिष्ठित होता चाहती
है, और यही आज के गाधी-युग की सच्ची राष्ट्रीयता है :
तुम लो करवट, हिल उठे घरा, डोले अम्बर का रत्त-जाल
अंगडाई लेने लगे दिवव लहरें सागर के बन्तरालं
हो आज हिमालय अनल्ालय हिस-बिन्दु बनें ये अग्तिखण्ड
धर लो मानवता का विद्याल इसके कंधो पर केतुदण्ड
क्षणभंगुर-नश्वर जीवन में अजरामर-अक्षर उठे जाग,
जीवन की कृति-कृति में जागे सत-शिव-सुन्दर जो महाभाग !
मेरे अमुतमय ! जाग ! जाग !!
'स्वर्गादपि गरीयसी” जननी-जन्मभूमि की वन्दना में छीन, महा-
गान के गायक सवंश्री रवीन्द्रनाथ, नजरुलइस्ाम, इकबाल, चकवस्त,
तान्हालाल दलूपतराम, मैथिलीशरण गृप्त के स्वर को ऊपर उठानेवाले
देतालिको भें ही हमारे इस कवि का अपना स्थान है ।
राष्ट्रीय चेतता से उद्भूत हिन्दी की अधिकाश कविता जहाँ कविता
का स्थान नही प्राप्त कर सकी, वहाँ इस कवि की प्रतिभा देश के
अन्तस्तल में भीतर उतरी हुई, सहज ही में कविता के गौरवपूर्ण आसन
पर अधिष्ठित हुई है ।
देश के उत्थान मे लगे हुए युगपुरुषो के प्रति स्वभावत: उसके हृदय
में श्रद्धा है, और अनायास ही वह श्रद्धा उसके छन्दो मे कथिता बनकर फूट
पड़ी है। उसकी अनुभूति अस्थित्ववशेष (उसी के शब्दों से) 'बापू' में क्या
देखती है, उसे आप भी देखिए :
सबसे प्रथम छुए ভুল হী
इतने कोटि अछूत |
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