आत्मविजय | Aatmavijay

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Aatmavijay by भोलानाथ जी महाराज - Bholanath Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ आन्तरिक युद्ध लिया । दूसरे से युद्ध करने में दूसरे को चोट लगती है, लेकिन इस संग्राम मे तो अपने आप या अपने अहङ्कार से लड-लड़्‌ कर सब बार अपने ऊपर ही करने हैं। ऐसे वारों को तो कोई बहादुर ही वरदाश्त कर सकता है | अजब युद्ध है कि अपने आप से लड़ाई है। जहाँ वाहर के बादशाहों को पता लगता है कि उनका कोई शत्रु है तो वह उससे लड़ने को हर प्रकार के युद्ध के सासान तैयार करते हूं ओर खूब जी सजुबूत करके उससे लड़ते हैं. । फिर जिसको यह पता लग जाय कि उसके अन्दर एक मुतवातिर संग्राम जारी है तो फिर सुस्त क्‍यों बैठा रहे ? उसको चाहिए कि वह जल्द-अज- जल्द ओर उम्दा-से-उम्दा युद्ध के सामान तैयार करके अपने हेषी को जीत कर विजय को प्राप्त हो । कोन है जो जामए इन्साँ में भी काहिल रहे। तक करके अपने अगराज़ो मफ़ादे वाकमाल || यानी ऐसा मूर्ख संसार मे कोन हो सकता है कि जो अपने ही सवा मे आलस्य से काम ले ओर फिर जव उसको इतना दुलेम मनुष्य श्रौर्‌ पुरुष का शरीर प्राप्त हो । युद्ध का पहला असूल ( सिद्धान्त ) यह है कि ख्वाह कुछ हो में अपने शत्रु को जीते वगेर न रहँँगा और जीत भी न सका तो में कमी अपना कदम पीछे न हटाऊँगा। अथीत्‌ विजय या मृत्यु दोनों ही भेरे लक्ष्य हैं| मेरा पुरुषार्थ ( पुरुष अथ ) यही है




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