ध्यानशतक | Dhyanshatak
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
206
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावनां ५
सक्लेश रूप परिणति को यहा _आतध्यान कहा गया है (६-६) । राग-देप से रहित साधु वस्तुस्वरूप का
विचार करता है, इसलिए रोगादि जनित वैदना के होने पर वह् उसे श्रपने पूर्वोपाजित कमं के उदय से
उत्पन्त हुई जानकर शुभ परिणाम के साथ सहन करता है । एेसा विवेकी साधु उत्तम श्रालम्बन लेकर--
निर्मेल परिणाम के साथ-- उसका पाप से सर्वथा रहित (पुणेतया निर्दोष) श्रथवा अ्रल्प पाप से युक्त होता
हुआ प्रत्तीकार करता है, फिर भी निर्दोष उपाय के द्वारा चिकित्सादि रूप प्रतीकार करने के कारण उसके
आतंघ्यान नही होता, किन्तु धर्मष्यान ही होता है । इसी प्रकार वह सासारिक दु खो के प्रतीकारस्वरूप
ज़ो तप-सयम का अनुष्ठान करता है वह इन्द्रादि पदो की प्राप्ति की श्रभिलापा रूप निदान से रहित
होता है, इसीलिए इसे भी श्रार्त व्यान नही माना गया, किन्तु निदान रहित धर्मध्यात ही माना गया हैं ।
ससार के कारणभूत जो राग, द्वेप और मोह हूँ वे श्रार्तध्यान मे रहते हैं, इसीलिए उसे ससार रूप वृक्ष
भ्रातंघ्यानी के कापोत, तील् श्रौर कृष्ण ये तीन श्रशुभ लेश्यायें होती हैं। (श्रातंष्यानी की पहिचान
इष्टवियोग एवं प्रनिष्टस थोगादि के मिमित्त से के तिमित्त से होनेवाले आकन्दन, शोचन, परिवेदन एव ताडन श्रादि
हेतुओ से हुआ करती है । वह अपने द्वारा किये गये भले-बुरे कर्मों की प्रशसा करता है तथा धन-सम्पत्ति
के उपाजन मे उद्यत रहता हुआ विषयासक्तं होकर घमं की उपेक्षा करता १२४ १७) ।
वह् भ्ा्त्यान नृतौ से रहित मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यर्दृष्टि, ,सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं अविरत-
सम्यरदृष्टि तथा सयतासग्त व प्रमादयुक्त सयत जीवो के होता है (१८) ।
२ रौद्रध्यान-
हिसानुबन्धी, मृषानुवन्धी, स्तेयानुवन्वी भ्रौर .विषयसरक्षणानुनधी के भेद् से रौद्रध्यान चार् प्रकार
काहे) (कि के वशीभूत होकर एकेन्दरियादि जीवो के ताडने, नासिका श्रादि के छेदने, रस्सी ध्रादिसे
वाघने.एव प्राणविधात करने श्रादि का जो निरन्तर चिन्तन होता है, यह हिसानुबन्धी नामक प्रथम
रोद्रध्यान का लक्षण है। प्रनिन्दाजनक, ग्रसभ्य एवं प्राणिप्राणवियोजक श्रादि प्रनेक प्रकारके श्रसत्य वचन
बोलने का निरन्तर चिन्तन करना, इसे मृषानुवन्धी नामक दूसरा रोद्रध्यान मात्रा गया है। जिसका
अन्त करण पाप से कलुषित रहता है तथा जो मायापूर्ण व्यवहार से दूसरो के ठगने मे उद्यत रहता है
उसके यह रोद्रघ्यान होता है। जिसका चित्त कोधवलोम के वशीभूत होकर दरूसरो की धन-सम्पत्ति
आदि के श्रपहरण मे सलग्न रहता है उसके स्तेयानुबन्यी नाम का तीसरा रोद्रघ्यान समभना चाहिए ।
विषयसरक्षणानुवन्घी नामक चौथे रोद्रघ्यान के वशीभूत हरा जीव विषयोपभोग के लिए उसके साधनभूत
घन के सरज्षण मे निरन्तर विचारमग्न रहा करता है । नरक गति का कारभूत यह चार प्रकार ता रौद्र
ध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर सयतासयत ग्रुणस्थान तक सम्भव है। यहा ग्रात॑ंध्यानी के समान रीौद्रध्यानी
के भी यथासम्भव लेश्याग्रो श्रौर उसके लिगो झादि का निर्देश किया गया है (१९-२७) ।
३ धमध्यान-
क
। [घरमेष्यान की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यहा यह सूचना की गई है कि मुनि को
१ ध्यान की भावनाग्रो, २ देश, ३ काल, ४ श्रासनविशेष, ५ आलम्बन, ६ क्रम, ७ व्यातव्य, ८ ध्याता,
& भ्रनुप्रेक्षा, १० लेश्या, ११ लिंग और १२ फल, ) इनको जानकर घर्मष्यान का चिन्तन करना चाहिए।
तत्पदचात् धर्मव्यान का अ्रस्थास कर लेने पर शुक्लध्यान का व्यान करना चाहिए (२८-२६) । इस
प्रकार की सुचना करके श्रागे इन्ही १२ प्रकरणो के आश्रय मे कमल प्रकृत धर्मव्यान का विवेचन किया
गया है ।
६ .भावना--चघ्यान के पूर्व जिसने भावनाओं के द्वारा श्रथवा उत्तके विषय, मे भ्रस्यास कर लिया
है वह ध्यानविषयक योग्यता को श्राप्त कर लेता है ) बे भावनायें ये है--ज्ञा, दु्शव, चारित्र और
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