जीत अबिनंदन ग्रन्थ | Jeet Abhinandan Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रबन्ध सम्पादक का प्रतिवेदन সন शि वाली समस्त बाधाम्रों का निवारण करने में सक्षम है, गुरुवर की क्रपादुष्टि | इनका हक ही सफलता का श्रमोध साघन है । ग्रन्थ का प्रस्तुत रूप, स्वरूप, सज्जा, सामग्री एवं प्रत्यत्पावधि म इसका लेखन, सम्पादन व प्रकाशन सव कृ इन परमश्द्धेय गुरुदेवों के शुभाशीप का ही सूफल है । प्रव तक के प्रकाशित प्रभिनन्‍्दन-ग्रत्थों की लीक से हट कर इंस ग्रन्य को संतुलित सामग्री से सुसज्जित करने का प्रयास किया गया है, जिससे ग्रन्थ साधारण शिक्षित व्यक्ति से लेकर मनीपी विद्वानों तक सभी के उपयोगी बन सके । ग्रन्थ में कहाँ क्या है ? यह कितने खण्डों में विभक्त है ? प्रत्येक खण्ड किन विषयों फी सामग्री से सम्बद्ध है ?--इन सभी का विवरण देकर सम्पादकीय के कलेवर को बढ़ाना युक्तिसंगत नहीं होगा । कारण स्पष्ट है, यह सव तो 'अनुक्रमणिका” देखकर भी ज्ञात किया जा सकता है । ग्रंथ-तिर्माण-काल में स्व. श्री नूतनचंद्र जी महाराज साहेब की स्मृति निरन्तर वनी रदी । स्व. मनि जी स्वयं एक कुशल लेखक, सम्पादक, प्रेरक, परामर्क, निदेशक, मार्गदर्शक, निष्पक्ष-निर्णायक एवं समीक्षक ये । श्राज यदि इस ग्रन्थ को उनकी कलम एवं कला का स्पशं मिल पाता तो निश्चय ही यह ग्रस्थ श्रौर श्रघिक उपयोगी, भ्राकपक एवं उत्कृष्ट बन पाता । यही वात कुछ भ्रंशो मे स्व. डॉ. पी.सी. जेल के लिए भी कही जा सकती है । इस विशाल ग्रंथ का गुंथन निश्चय ही सामूहिक सहयोग एवं श्रम का सु एवं सफल परिणाम है । भागम-व्याख्याता, पंडितरत्न, साहित्यसूरि, उपाध्यायप्रवर श्री लालचंद्र जी म. सा. के सतत निदेशन एवं सामग्री-संकलन व चयन के सहयोग ने प्रंथ-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है 1 ग्रुरुवर्य भरी शुभमुनि जी तथा श्रो पारश्वसुनि जी म. सा. के शुभाञीर्वाद एवं प्रमूल्य-परामर्श ने ग्रत्थ-निर्माण-कार्य में मेरे उत्साह को निरन्तर बनाए ही नहीं रखा, उसे बढाया भी है। विद्यार्थी श्री भव्रेशमुनि जी ने भी समय निकाल कर गीत-काव्य-रचनाश्रों में संशोधन-सहयोग कर मेरे गुरुतर-कार्य को सरलू, सुगम और हल्का बनाया है। डॉ. नरेन्द्र भानावत एवं डॉ. दामोदर शास्त्री का आभार किन शब्दों में प्रकट करू, जिन्होंने प्रन्थ-योग्य अपनी-अपनी रचनाएँ समय पर प्रेषित करने के साथ-साथ उच्चकोटि के अनेक ख्याति-प्राप्त लेखकों की अमूल्य रचनाएँ भिजवाकर ग्रंथ को समृद्ध बनाने में भरपूर सहयोग दिया है। डॉ. दामोदर शास्त्री का तो মী विशेष रूपेणा आभारी हूँ, जिन्होंने पृज्य गुरुवर श्राचाये प्रवर श्री जीतमल जी म.सा- को संस्कृत-रचनाझों का संपादन किया एवं उनके कृतित्व की समीक्षा बहुत ही गवेषणात्मक ढंग से की । डॉ. तेजसिंह गौड़ तो ग्रंध-सूजन में पूर्णतः: सर्मापत थे। यह उन्हीं की सामथ्ये थी, श्रम था, भागदौड़ का परिस्थाम था कि हम पुज्य श्रो देवेन्द्रसुनि जी द्ास्त्रों से, डॉ. भानावत जी से एवं दिल्ली, उदयपुर, इन्दौर, उज्जैन श्रादि स्थानों कै अ्रनेक विद्वानों से उनकी नवीनत्तम प्रमुल्य रचनाएँ समय की एक निश्चित परिघि में प्राप्त कर सके ! श्री जगदीशचंद्र जो ललवाणी ने अपनी दीघे एवं दुस्साध्य अस्वस्थता के बावजूद भी जिस लगन, श्रम एवं कुशल-फार्ययेली का परिचय दिया है, उसके लिए वे एवं एम. एल. प्रिण्टसं के स्टाफ-सदस्य निरचय ही घन्यवाद के पात्र हैं। पुखराज দু ১৯৯৯৯ 124 2৯ ॥ 4




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