श्री राधा का क्रमविकास - दर्शन और साहित्य में | Shri Radha Ka Kramvikash Darshan Aur Sahitya Me

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : श्री राधा का क्रमविकास - दर्शन और साहित्य में  - Shri Radha Ka Kramvikash Darshan Aur Sahitya Me

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ० शशिभूषण दास गुप्त - Dr. Shashibhushan Das Gupt

Add Infomation AboutDr. Shashibhushan Das Gupt

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
দি এ = के लिए, ऋल्याण के मंहीसंग्राम करती हूँ; मे दे क्र लिए (रला के लिए, कल्याण के लिए ) महां नग्राम करता हू; महा रु ट (4 हा আলী সি सतत রর प्रकार = विष्टं ~ = > ~~~ = अलोका आर सूनर चं सवतःजक्रार्‌ प्रविष्ट द । उने +& कः को বা = न~ 0 ৯১০০ स्पर्य হা ब्याज किए हुए हु; उस चुलाक को भी मन हू! पेंह स स्मया ऋर्‌ र्कला ক্রু ऋः হি बाय हि হা < ~ प्रदर्तित পা ~. 3 म है। झारभमाण संसार क्षो वायु की माति मं हौ प्रवतित करता द्रुः म 1 ~. [~अ चरे তি পর গর হী ২ न, = हिना है 516 झूलोक के भी परे हूँ, में पृथ्वी के भी परे हँ--यही मेरी महिना है। নি 1 यहाँ आत्म-स्वरूप परत्रह्म की ही महिमा उदगीत हुई হা শত संबंभूतों में विराजमान रहकर सबका धारण और संचालन कर रहे हे । जहाँ जो कुछ हो रहा त লি } 11 है, जहाँ जो कोई भी जो कुछ कर रहा है--बह ना और करना क्रिया के मूल में उन्हीं की एक सर्वेव्यापिती शक्ति ह । वे सर्वभवितिमान्‌ हु--उस सर्रंभक्तिमान्‌ की अ्रनन्त चक्ति ही सारौ क्रियाओं का मूल कारण है, सारे लानो क्रा मूल कारण द; यह्‌ इच्छा-नान- क्रिपात्मिका हैँ। विव्वव्यापिनी भक्ति ही तो देवी हं---वही महामाया हे । यहाँ आत्मा के महिमाख्यापन के उपलब्ध में ब्रह्म का महिमास्यापत और ब्रह्म के महिमाख्यापन के अन्दर से भानों ब्रह्मणक्ति की ही महिमा कीर्तित | +. न) 4১] 4 1१ हुई है। गक्तिमानू और थविति अभेद है, तथापि ब्रह्म के महिमाख्यापन लिए ही मानों ब्रह्मशक्ति को ही प्रधान दिखाया गया है। यह जो गदित आह! करके शरीर यत्रितमान्‌ के मून ग्रभेदत्व के वावजूद श्रमेद मे मेद की कल्पना शक्ति की महिमा प्रकट की गई है, यही भारतीय दार्शनिक शक्ति- वाद का बीज है । भगवान की त्रनन्तयवित सभी देगो, समी कालो, समी यासस्‍्त्रों में मानी ओर गाई गई है, लेकिन उस गक्ति को गक्तिमान्‌ ते रलम करके उसमें एक स्वतन्त्र सत्ता और महिमा का आरोप करके अपनी নলিনা ন अक्ति की ही अतिप्ठा करना--यही भारतीय शवितिवाद का अभिनवत्व है । इस शक्तिवाद में भारत के जितने धर्ममतों में जिस प्रकार से भी श्रवेग किया है सभी जगह यह अभेद में भेद बुद्धि का मूलतत्त्व वर्तमान है। उपर्युवत्त वैदिक सूक्त मे गवितमान्‌ प्रर भवितत एकमः ्रविना মর वद्र, सैक्रिनि यहाँ जो एक दो! की सूदम कत्पना की व्यजना है परवर्ती काल में विविध घर्मो में धर्म-विब्चास और टा्यनिक तत्त्व बीस ०१ ) श्रं द्ेनिचदुभिक्चरामि श्रादि।! (१०।१२५।१-र)




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now