तमिलनाडु का इतिहास (1995) | Tamilnadu Ka Itihas (1995) Ac 6470

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Tamilnadu Ka Itihas (1995) Ac 6470 by पंडित मल्लिनाथ शास्त्री - Pandit Mallinath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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* 7७ आह ९ को पहली फाड या चक्र कहां है। उस काल में हिन्दू लड़के इसी से विधारम्भ करते में । जूलर का यह कथन सत्य है कि प्रारंभ में सिद्ध को नमस्कार करने के कारण ही बारहसंर्डी का नाम 'सिद्धमातुंका' अथवा “सिद्धाक्षर समाम्नायः” पड़ा । ` दक्षिण में हिंन्दू छात्रों को बारहखड़ी के प्रस्म्भ में “श्रों गणेशाय नमः” के स्थान पर “৬৬ नमः सिद्धम” पढ़ाया जाता था। राष्ट्रकूट समय से लेकर अधी तक यह सतत लगातार चलता रहा । इस पर श्ाकृत-अपप्रंश के प्रकाण्ड विद्वान सी. वीं. वेध का निम्नलिखित कथन दृष्टव्य है । उनकी दृष्टि में “- मास एजूकेशन जैलों के ट्वारो निर्मत्रित था। बारहखड्टी के प्रारम्भं मे उनका “ॐ नमः सिद्धम्‌” सर्वमान्य था। सार्वभौम या । चैनो कौ गिरती दशा मे भ सर्वजन में प्रचलित रहा। इससे जैन शिक्षा का महत्त्व स्वतः ही अंकित हो जाता है 1” (शष्टकूटाज एण्ड देयर टाइम्स, पृ. ३०५४-१०) भारत में ब्रिटिश राज्य' के रचयिता पं. सुन्दरलाल ने अपने एक भाष्य में कहा था कि मध्यकाल में, उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक जैन पाठशालाओं का जाल बिछा हुआ था। उनमे व्यापार, धापा ओर श्रमं कौ शिक्षा दी जाती थौ ! किन्तु पण्डित जी ने यह कहीं नहीं लिखा कि ये पाठशालाएँ बिल्डिंग रूप में थीं अथवा चटशालाएँ थीं। सत्य यह है कि जैन साथु और साध्वियाँ समूचे भारत में विहार करते थे। एक जगह टिके रहना नियम-विरुद्ध है। इनके संघ चलते-फिरते विधालय होते थे । जाति, वर्ग और संम्प्रदाय से निरपेक्ष होकर वे सभी को शिक्षा देते थे। चातुर्मास में जहाँ भी टिकते, छात्रों की भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार जितना जैन साधु संघों के द्वारा हआ, अन्य कोई म कर संका! इनमें एक विशेषता थी कि उन्होंने शिक्षा की कोई विद्या अथवा अन्द किसी जाति विशेष के लिए रिजर्व नहीं क्रिया था । उनका द्वार सभी के लिए खुला था। इसके साथ-साथ यह भी स्पष्ट है कि वे समृचा ज्ञान निःशुल्क बाॉटते थे। कोई फीस आदि लेने का प्रश्न ही नहीं था। वे स्वर्य नग्न, निरीह और निर्तात अपरिग्हीं थे । कुछ नगर जैन विद्यालय और पाठशालाओं के स्थायी केंन्र थे, जैसे वाराणसी, जोनपुर, राजगृह आदि। मध्यकाल में जगह-जगह पोठ्शालाओं के भवन भी बन गये थे। हिन्दी के कवि बनारसींदास की प्रारम्भिक शिक्षा ऐसी ही पाठशाला में हुईं थी। उनके पिता खड़गसेन भी उसी पाठशाला में पढ़ें चे। वहाँ अक्षर हान और गणित मुख्य थे शिक्षा का यह हाल था कि वे एक वर्ष में ही व्युत्पन्न हो गये थे। हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार बनेरसीदास चतुर्वेदी ने अर्थ कथांतरके को भूमिका में लिखा है, ऐसे जान | पड़ता है कि अत्येक मंगरे में बटशाला या सोत्रशाली रहा करती थी, ठेस कण्डे भुर ` जीवनोपकोगी लिखने-पढ़ने और लेखे-जोले की शिक्षा दिया करते के । 7 समिलेनाई में जैन संदर्मण बिके पेटआव के अदिशा, करेणों आदि के! पंचार करते वे वै जगई-बपई फठ्शाक और विस्तपीठों की स्थापना करते वैः ओर र्मे विनां




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