व्यवहार भानु | Vyavhar Bhanu

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Vyavhar Bhanu  by मद्दयानन्द सरस्वती - Maddayanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व्यचहारभाजु: ११ मैं. -फुलवारी निकालेंगे इत्यादिं कुशिक्षा फरते हैं, उनको माता पितो शौर आचाये न समंकना चाहिये, किन्तु सन्‍्तान और शिष्यों के पक्के शत्रु और. ढुःखदायक ई, क्योकि जो बुरी ভা , देखकर लड़कों को न घुड़कते और च दंड देते हैं, वे क्यो कर माता, पिता ओर आचाय हो सकते ई १ क्योकि जो श्रपने सामने यथातथा वकने, निर्लज्ा होने. व्यर्थ चेश करने आदि बुरे कर्मो से हटाकर विद्या रादि शुभ- गुणों के लिये उपदेश नहों करते, न तन, मन, धन लगा के उन्तम विया व्यवहार का सेवनं कराकर अपने सन्तानो को सदा श्रेष्ठ करते जाते हैं. वे माता, पिता और आचाये कद्ाकर अन्यवाद्‌ के पाच कभी नहं हो सकते । श्रौर जो अपने २ संतान और शिष्यो को ईश्वर को उपासना, धमै, अधर्म, प्रमाण, श्रमेय, सत्य, मिथ्या, - पाखरड, वेद, . शाल आदि-के लक्तण और .डनके स्वरूपः. का यथावत्‌ बोध करा और साम्रथ्ये के -अचुङ्ल उनको वेद शास्रं के वचन भी कराटस्थ कराकर विद्या पढ़ने, आचाये के अश्ुकूल रहने की रीति जबा देवें, जिससे विद्याप्राप्ति आदि प्रयोजन निविश्न सिद्ध:हों, वे-ही माता पिता शरोर आ्वभः-क्ाते हैः} - ( प्र० )/विध्वा किस २ प्रकार और किन फर्मों से होती.है ! (उ० মিনি भवति । आंगमकालेन स्वाध्यायक्रालेन प्रघचनकालेन व्यवहारकालैनेति ॥ লা আত ৭11 1 आ० १ ॥ विद्या चार प्रक्रार से आती है-+आगम; खाध्याय, प्रवलषद ,. शमर ` व्यवहार काल । 'आगमकाल' डसको कहते हैं कि जिससे




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