जहांदारशाह | Zhadarshan

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Zhadarshan by बाल्मीकि त्रिपाठी - Balmiki Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जहाँदारशाह : १३ “मर, हुजूर ने बयों अपने को इसके वश में कर रखा है ?” #इसके नही, अपने वश में कहो वेगम । इसका दामन तो सिर्फ इसलिए पकड़ रखा है कि कुछ लमहों के लिए इस दीनोदुनि्यां से वेखवर होकर सुकून की जिन्दगी गुजार सकू 1 “इस अजीम सस्तनत कै हमर को किस चीज की किक्र। तमाम जहान॑ की नियामर्ते तो हुजूर के कदमों पर हमेशा विधार हुआ करती होंगी।'” “ठीक कहती हो । आम रियाया का अकीदा यही होना चाहिए। मयर किसी को बम खबर कि जब सारी दुनियाँ चघैन-व सुकून की नींद सोती है तो हम जंसे शाह्िजादों की रात किस चेचनी से गुजरती है । और फिर, कौन रात कितनी संग्ीन होती है, उफ ! ” हाम में रिक्त पाव को हिलाते हुए, “जल्दी भरो 17 तीन पात्र लगातार भरने के उपरान्त लालकुंअरि ने संकोच कहा, “अगर, कनीज से कोई गुस्तासी हो गई हो तो माफी की तलवगार हूं 1” नहीं लाल, इस दुनियां मे हर शरस के मसाएल जुदा-बृदा हैं। कोई किसी के हल करने मे उलझा है तो कोई किसी में मसरूफ है । हर शब्स ने तो दूसरे के मसाएल को समझने का माहा रखता है भौर च दिलचस्पी ही । और ठीक भी है, किसी से ऐसी उम्मीद करना कि बहू गैर के मसाएल की उठनी ही थरद्मियत देगा जितनी ५ बीच में ही लालकुंअरि बोल पढ़ी, “मगर, इस दुनियाँ में छुध तोग ऐसे भी होते है जिन्हें समझा तो गैर जाता है, मगर वे गर समसने वाले के मसा+ एत फो उससे भी ज्यादा महमियते ^ ` 5 47 “ओह ! मैं भी क्या गतती कर बैठा 1 तुम्हे अपने से अलग थोढे ही समझता हूं, लाल ।/ लालकुंआरि के अश्रुपूरित नेयो रो वध्य कर माहेजादे ने स्थिति धम्दालने की चेप्टा की, “में तो तिष्ठं जपने जती मसाएन से इस- लिए वाकिफ नहीं कराना चहता ह कि क्यो विलावजद् तुम्दे भी उसी उलझव में १*५०-५ 1 उठकर जाती हुई लालकुअरि को पक जननी ओर सौचते




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