राजशेखरकृत कर्पूरमन्जरी एवं विश्वेश्वरकृत शृङ्गारमन्जरी सट्टकों का आलोचनात्मक अध्ययन | Rajshekhar Krit Karpuramanjari Awam Visheshwar Krit Shringaramanjari Sattakon Ka Aalochanatmak Adhyayan

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Book Image : राजशेखरकृत कर्पूरमन्जरी एवं विश्वेश्वरकृत शृङ्गारमन्जरी सट्टकों का आलोचनात्मक अध्ययन  - Rajshekhar Krit Karpuramanjari Awam Visheshwar Krit Shringaramanjari Sattakon Ka Aalochanatmak Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है। वर्तमान मे उपलब्ध नाद्य-शाखत्र' के परिशीलन से सहज ही अनुमान किया जा सकता है, कि-- कोहल वर्तमान नाद्शात्र॒कार के पूर्ववर्ती है, क्योकि नाद्यशासत्र मे अनेक बार कोहल का उल्लेख हुआ है। कोहल का कोई ग्रथ सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। सगीत-मेरः नामक एक उपलब्ध कृति को कोहल प्रणीत बताया जाता है, कितु यह परवर्ती कृति है, ऐसा प्रमाणित होता है।* नादयशा्र मे एक पंक्ति है--“शेषमुत्तरतन्त्रेण कोहलः कथयिष्यति”।* इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि--उत्तरतन्त्र” नामक अपनी कृति में कोहल ने नाट्य सम्बन्धी अपनी मान्यताओ को लिखा होगा, जो आज अनुपलब्ध है। आज कोहल के विचारों से परिचित होने का एकमात्र साधन अभिनव- गुप्त की अभिनव-भारती नामक नाट्यशाख की टीका है। इसी के आधार पर कोहल को उपरूपकों का प्रवर्तक बताया जाता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि-उपरूपक' शब्द का प्रयोग कोहल सम्बन्धी किसी भी प्रसग मे नही प्राप्त होता, ओौरन ही अभिनवगुप्त ने इस शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु इतना अवश्य है कि जिन कमियों या विशेषताओं के कारण उपरूपकों को रूपक से भिन्न कोटि में रखा गया है, लगभग वैसी ही कमियों या विशेषताओं के कारण कोहल ने उन्हें अन्य नाम-- नृत्यात्मक रागकाव्य'२ देते हुए दश प्रसिद्ध रूपक भेदों से अलग कोटि में रखा है। अभिनवगुप्त नृत्यात्मक रागकाव्यो के प्रसङ्ख मे अक्सर कोहलादि”* शब्द का प्रयोग करते है। तदुक्तं चिरन्तनैः ५ शब्द का प्रयोग भी इन काव्यो के प्रसङ्ग मे उन्होने किया है। अर्थात्‌ कोहल १. भशृद्ारप्रकाश, वी० राधनन, पादटिपङड़ी मे सूचित -ष्ड- ५३५ नाट्यशाल्न ३४।६५ अभिनवभारती, भाग-१, पृष्ठ १८२ টি এরি आन (क) 'कोहलादिलक्षितत्रोटकसट्टकरासकादिसग्रह:--अभिनवभारती, भाग-ो, पृष्ठ ४४१ (ख) कोहलादिभिर्नामिमात प्रणीतम्‌।-अभिनवभारती, भाग-दो, पृष्ठ ४१० ५. अभिनवभारती, भाग-१, पृष्ठ १८३ (.< )




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