मोक्षमार्गप्रदीप | Mokshamargapradeep

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Mokshamargapradeep by सरनाराम जैन - Sarnaram Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५) ¦ परहट्वर या पूवचर मो श्यवहार 1 मोनमाग तो उतना हौ ह দিলনা ¦ श श्र रै दथा “सम्पम्दशनज्ञानदारित्राशि मोक्षमाण ” मेँ उतने हो अत का प्रहण है। इस पद्धति वा सिल्‍्तार निूपण हमने भ्रपनी श्रौ पुरपाय सिद्धयुपाय टीका में छूद किया है 1 अथवा उपपु क्त মুগ হা भ्रय एर झोर प्रवार से भी हो शश्ता है। श्यश्ार शाप्रप धयादिरनयमभी होता है तथा नित्वयक्ाश्रम दब्याधिक मय भा होता है। उस दक्षा मे यह पार होगा-- सृत्राथ--ध्यवहार ते धर्वाद्‌ पर्यापाविक् मय से (ऋद्धा गुण वी) साम्यादच न पर्पाप, (क1न दुझा को) सम्यस्क्ान पर्पाय भौर ।चारित्र पुरा हो) सम्पक चारित्र पर्याय ये ३ पर्यायें या इस सोन पर्षाएों की एकता को सोन का कारए जात धौर निदयय से घर्यात्‌ द्रब्यापित्र नप से उन सशोन पर्षायों से तसथ छो अपना प्रामद्रम्प है उसे हो सोश था सारण जात । भावाधथ-- पहले ऊपर को पत्ति वा भय करते हैं (१) बढ़ा गुए को प्रनादि से मिध्यादशन पर्याय चली झा रहोहै। यदि जोब प्रपनेपुस्थाय द्वारा निमित्त का श्राधप दोटकर भपने शायर प्रस्य (থে स्वमाव) का द्राधय से सो सम्पर्दशन बी पर्याय प्रणद हो जाती है शिस का सक्षणा भाग्य धद्धान या तत्ताषधद्धात है। इस पर्योथ में रात भा না होता,पह गुदं दप ए+ प्रत्तार की ही होती है जो पर्यायाविक सप से भोदा दा कारण कही ज्ञाता है। (२) धतादि वा शाम पर में प्रवृत् हो रहा है॥ सम्यादटात प्रपट होने पर ज्ञान-सग्यप्तात हो छाता है ॥ बह লান জী হানারি कह मिध्याचारित्र की भरवृत्ति में शरण था, फिर बह सम्पक्चारिश्र की प्रवृत्ति मु कारण बनता है। बोदेशग रुप घर सम्पाज्ञान पर्याय पर्पायाविक लय से मोदा का कारण बड़े जातो है) (३) घारिध पुए का परिणमन सीन भ्रकार का हुआ करता है। एक




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