षटखंडागम | Shatkhandagam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शका समाधान ` ( ५) क्रिया गया है, ओर साती पृथिवीति सम्यक्व सहित निर्गमन द्वोना संभव ही नहीं है । दृष ्षयोपशम सम्यक्व तभी प्राप्त क्रिया जा सकता है जब सम्यक्त्व प्रकृतिका सथा उदेढन नदीं हो पराया, ओर उसकी सत्ता रेप है । अतएव क्षयोपशम सम्यक्त्वके स्वीकार करनेमे उत्कृष्ट अन्तर्‌ पल्योपमका अक्तट्यातवां भागमात्र काल ही प्राप्त हो सकता है । किन्तु ভনহাল सम्यक्त्व तभी प्राप्त हा सकता दे जत्र सम्यक्व व स 9, पग्रकृतियोंकी उद्देलना पूरी हे। चुकती दे । अतएव उपशम सम्यक्व प्राप्त करानेते ही उक्त कुछ अन्तभुद्तोको छोड रोष আপনা उच्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो सकता है; क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करानेसे नहीं है। सकता । पुस्तक ५, पृ, ३८ १३, शंका--संत्र नें, 9० की टीकामे तीन पंचेन्द्रिय तियंच मिथ्याइश्योंका जघन्य अन्तर्‌ बतरति हए उन्दं केवट एक असयतसम्यक्ल गुणस्थानमे ही क्यो प्राप्त कराया सूत्र न. ३६ की टीकाके समान यहां मी € अन्य गुणस्थानमें छेजाकर ” ऐसा सामान्य निर्देश बर तृतावय, चतुथ व पचम गुणस्थानका प्राप्त क्‍या नहां कराया ? ( नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान- सूत्र न. ३६ ओर ४० की टीकाम केवर कथनहैटीका हयी भद ज्ञात होता है, अथका नहीं। | यहां सम्यक्लपे समवतः केवट चतुथं गुणस्थानका ही अभिप्राय नह, किन्तु मिथ्यालक्नी छोड उन सब गुणस्थानेसि है जो प्रकत जीवोके समव हैं | यह बात काछानुगमक्े सृत्र ५८ की टीका (पुस्तक 9 प्र. ३६३ ) का देखनेसे और भी स्पष्ट हो जाती है. जहां उक्त तीनों तिबचोके मिथ्यालसे सम्यम्मिथ्यात्व, अस्ंयतसम्यक्तत्र व संयतासंयत गुणस्थानम जाने- अनिका स्पष्ट विधान है | पुस्तक ५, १, ४० পু १४७, शंका--सूत्र 9५ में तीन पंचेन्द्रिय तियँच सम 'इष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर प्रतछात हुए अन्तमें प्रथम सम्यक्वकों ग्रहण कराकर सम्यम्मिथ्यात्वको क्यों प्राप्त कराया,. सीधे मेथ्यात्वस ही सम्यग्मिथ्यात्वको क्यें नहीं प्राप्त कराया ? क्या उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिश्यात्व पकृृतियोंक्री उद्देलना हो जाती है £ ( नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान- हा, वहां उक्त दो प्रकृतियोंकी इदरेखना ह्यो जाती दै | वह उद्देलना स्योपभके असंस्यात्वै भागमानन कालम ही हा जाती दै, ओर यां तीन पस्योप्म काठक अन्तर्‌ बतलाया जा रहा है ।




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