लोकगीतों की सामाजिक व्याख्या | Lokgeeton Ki Samajik Vyakhya

Lokgeeton Ki Samajik Vyakhya by श्री कृष्ण दास - Shri Krishna Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) पर्याप्त प्रयास किया है और उनका प्रयास बहुत अ्शोां तक सफल भी हुआ है । परन्तु संतोष करके बैठ रहने का समय श्रभी नहीं आया है। हमारे हिन्दी क्षेत्र के विभिन्न स्थानों से अभी अगणित बहुमूल्य लोकगीत बिखरे पठे है । उनका सग्नद अधिक तेजी ओर चुस्ती के साथ होना चाहिए । यदि हमारे ये गीत हमारी सुस्ती के कारण खो गये, धूल में मित्र गए, स्म्ति-पटल से उतर गए, तो हम अपराधी ठहराय जायेगे | हमारे यहाँ ভীক্ষীনী ক संग्रह का काम तो थोडा बहुत हुआ है । गीतों के भावार्थ या शब्दार्थ भी दिए गए हैं । परन्तु उनका मूल्याकन अभी तक पूरी तौर से नहीं हो पाया है, न उनकी सामाजिक व्याख्या ही ठीक तरह टो पायी है | अ्रब इस कार्य में देर नहीं होनी चाहिए क्योंकि हमें यथाशीघ्र जाति, चर्ण, संस्कृति, समाज से चाल कर मूल मन्‌ज को फिर से खोज निकालना है | 'लोकगीतों की सामाजिक व्याख्या” पाठकों की सेवा सें प्रस्तुत है । जिस समय अमृत पतन्निका' में यह व्याख्या लेख-माला के रूप में प्रकाशित हो रही थी उस समय श्रद्धाय पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा था, 'लोकगीतों पर श्रापकी लेखमाला वटी सुन्दर निकल रही है ! आप बढ़ी गहराई से समाज मे च्याप्त संस्क्रति को देख रहे है | में बढ़े ध्यान से पढ़ता हूँ। मेरे आमगीत' संग्रह का सच्चा लाम आप ले रहे हैं , यही उसकी सार्थकता है 1? न्निपादी जी के इस पतन्न से मेरा उत्साह बढा ओर जब डाक्टर उदय नारायण तिवारी, डाक्टर महादेव साहा तथा अन्य विद्वान मिन्नों ने कहा कि यह व्याख्या पुस्तक रूप में आ जानी चाहिये तो सेरा भी साहस हुआ ओर मेने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि फिर से तैयार की श्रौर भाई नर्मदेश्वर चतुर्वेदी की तस्परता से पुस्तक प्रकाशित भी हो राह | मैने रीतो की व्याख्या के पूवं 'सिद्धान्त' का एक अध्याय द दिया है । इससे पाठकों को लोकवार्ता तथा लोकगीतो से संबंधित कुछ भ्रमों को दूर करने में अवश्य सहायता सिलेगी । गीतो का श्रध्ययन समाप्त करके मेंने 'लोक- गीत सग्रह का एक अध्याय और जोड़ दिया है । गीतों के चुनाव सें किसी विशेष सिद्धान्त का विचार सेंने नहीं किया । पाठकों को चाहिए कि वे इनमें से




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