समयसार अमृत कलशावलि | Samayasar Amrit Kalashavali
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
94
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समयसार अमृत कलशावलि ७ ]
स्वर्णं की उपमा द्वारा जात्मा का कथन :-
ज्यो धरिया मे मेल से स्वणं धरे वहु रूप)
निश्चय से यदि देखिए লীলা হু स्वरूप ॥
त्यों अनादि नव-तत्व वश होकर एकाकार।
कहलाता उस रूप भी कहिए सो व्यवहार 0
उनसे भिन्न स्वरूप ही शुद्ध जीव का जान।
सो अनुभव सम्यकत्व है, मिले ध्यान, अनुमान ॥८॥
स्वानुभूति होने पर नय-निश्षेपादि व्यर्थ :-
अनुभव साधन प्रथम् ही नय, निक्षेप प्रमान ।
साध्य सधे, साधन हट, जाने रीति सुजान \\
अनुभव सें जब जीव का मिलता है आस्वाद ।
छुटते सभी विकल्प तवः भिटता वाद-विवाद ॥
ज्यो दिनकर के उदय से अंधकार बिनसाए ।
, रागादिक की बात क्या सकल दद्र मिट जाए 11६1
स्वानुभव হীন पर सव विकल्प मिट জাল ই:
होते राग नयादि के समी ` विकल्प विलीन ।
निजानुभव में आत्मा जब ` होती तल्लीन 0
आदि-अन्त से रहित, नित शुद्ध जीव का भान)
स्वानुभूति मे प्रगट हो सो सम्यक्त्व बलान \। १०॥
आत्मानुभव की भावना भाते हैं :-
सब ভিলা परिणाम हैं. ऊपर-ऊपर जान।
शरीरादि के मोह वश सो संयुक्त बखान-॥।
सदा प्रकाशित ज्ञान-ग्रुण ही सम्यक्त्व स्वमान ।
सब जीवों को अनुमवे, छूटे समी विभाव 11९ १0७
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