समयसार अमृत कलशावलि | Samayasar Amrit Kalashavali

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Samayasar Amrit Kalashavali by नन्द किशोर जैन - Nand Kishor Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समयसार अमृत कलशावलि ७ ] स्वर्णं की उपमा द्वारा जात्मा का कथन :- ज्यो धरिया मे मेल से स्वणं धरे वहु रूप) निश्चय से यदि देखिए লীলা হু स्वरूप ॥ त्यों अनादि नव-तत्व वश होकर एकाकार। कहलाता उस रूप भी कहिए सो व्यवहार 0 उनसे भिन्न स्वरूप ही शुद्ध जीव का जान। सो अनुभव सम्यकत्व है, मिले ध्यान, अनुमान ॥८॥ स्वानुभूति होने पर नय-निश्षेपादि व्यर्थ :- अनुभव साधन प्रथम्‌ ही नय, निक्षेप प्रमान । साध्य सधे, साधन हट, जाने रीति सुजान \\ अनुभव सें जब जीव का मिलता है आस्वाद । छुटते सभी विकल्प तवः भिटता वाद-विवाद ॥ ज्यो दिनकर के उदय से अंधकार बिनसाए । , रागादिक की बात क्या सकल दद्र मिट जाए 11६1 स्वानुभव হীন पर सव विकल्प मिट জাল ই: होते राग नयादि के समी ` विकल्प विलीन । निजानुभव में आत्मा जब ` होती तल्लीन 0 आदि-अन्त से रहित, नित शुद्ध जीव का भान) स्वानुभूति मे प्रगट हो सो सम्यक्त्व बलान \। १०॥ आत्मानुभव की भावना भाते हैं :- सब ভিলা परिणाम हैं. ऊपर-ऊपर जान। शरीरादि के मोह वश सो संयुक्त बखान-॥। सदा प्रकाशित ज्ञान-ग्रुण ही सम्यक्त्व स्वमान । सब जीवों को अनुमवे, छूटे समी विभाव 11९ १0७




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