शील की नव वाड | Shil Ki Nav Vaad
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
309
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका £
मैयन शब्द की व्यास्या इस पकार है स्त्री शरीर पुरुष का युगल मिथुव कहलाता है। मिथुन के भाव-विशेष अथवा कर्म-विशेष को
भेपन कहते हैँ । मैप ही सन है 1
प्राचार्य पूप्यपाद ने विस्पार करने हुए लिसा हे--मोह के उदय होने पर राग-परिणाम से मरी और पुरुष मे जो परस्पर सस्पर्श की
स्त्या होती है, वह मियुन है। चौर उसका कार्य श्र्यात् समोग-क्रिया मैथुन है। दोनो के पारस्परिक सर्व भाव श्रथवा सर्व कर्म मैथुन नही,
राग-परिणाम के निमित्त से होनेदाणो चेष्टा मेयुन है? ।
प्री स्फलइदेव एक विगेष वाद कएते हँ--हस्त, पाद, पुढ़ल सघट्टनादि से एक व्यक्ति का अग्रह्म सेवन भी मैथुन है। क्योकि यहाँ
एक व्यक्ति हो मोहोदय से प्रकट हुए कामरुपी पिणाच फे सप्क से दो हो जाता है भौर दो के कर्म को मंथुन कहने मे कोई बाधा नही? । उन्होने
यह শী বালী তত पुरुष-पु्य या र्पो-न्दी के बीच राग भाव से प्रनिष्ट चेष्टा भी अउ्य है* ।
उप्यक्त विवेचन के साय पाक्षिक सुगर के विवेचन को जोडने से उपस्थ-सयम रूप ब्रह्मचर्य का श्रर्थ होता है, मन-वचन-काय से तथा
झत-का रित-घनमति रूप से देविकः गानुपिक, दिय्यंच सम्बन्धी सर्द प्रकार के वंषयिक भाव झौर कर्मो से विरति। द्रव्य की पपेक्षा सजीव
श्रयवा निर्णीव किसी नी वस्तु से पे युन-सेवन नहों करना, क्षेतर की दृष्टि से ऊर्घ्व, श्रवों श्रववा तिर्यय लोक मे कही भी मंपुन-सेवन नहीं करना,
কাত की घपेज्ञा दिन या रात मे किसी भी समय मंयुन-सेवन नही करना झौर भाव की भ्रपेज्ञा राग या द्वेप किसी भी भावना से मंथुन का सेवन
नही करना ब्रहचये है” ।
महात्मा गाधी ने तिणा है--“मन, वाणी और काया से सम्पूर्ण इन्द्रियो का सदा सब विपयो में सयम बह्मचर्य है । ब्रह्मचर्यं का श्रयं
शारीरिक सयम मात्र नही ह वल्कि उसका अर्थ ६--पम्पूर्ण इन्द्रियो पर पूर्ण अधिकार ग्लौर मन-वचन-कर्म से काम-वासना का त्याग। इस
रूप मे वह पात्म-साजाक्तार या प्रऊ-प्राप्ति का सीधा प्लौर सदा मा है९ 1
ब्रह्मदर्य की रक्षा के लिए सर्वेन्द्रिय सपम की आ्ावश्यकता को जनधम मे भी सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। वहाँ मन, वचन भर काय से
ही नही पर ऊुठ-णारित-अनुोदन से भी काम वामना के तयाग को ब्रह्मचयं की र्ना के लिए प्रमावश्यक बतलाया है 1 स्वामीजी सवेन्ियजय--
विपय-जय को एक परकोट की उपमा देते हए कहते है--
হাল रूप गन्व रस॒ फरस, भला भूडा हलका मारी सरस ।
বাঁ কৃ হাম ঘন কহতী नादी, सील रहुसी एहवा कोट माही ॥
९-- तत्वार्थसूत्र ७ ९९ भौर भाप्य
मेथुनमनलय
स्व्रपुखयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा मेथुन বল
२--तत्त्या्सूच्र ७ १६ सर्वार्थसिद्धि
स्त्रीपुसयो'च ष्वारिनमोहोद्ये सति रागपरिणामादिप्य्योः परस्परस्पर्थन प्रति इच्छा मिपुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमिः्युच्यत्ते। न सर्य
कर्न 1 स्ीपुसयो रागपरिणामनिमित्त चेष्टित मैथुनमिति
३--तत्त्वार्थवातिक ७ १६ ८
एकस्य हिदीयोपपत्तो सैथुनत्वसिद्धे --ठ*“क्स्यापि पिशाचदशीहृतत्वात् सहिदीयत्यथ तब्करय चारित्र्मोहोदयाविप्ह्ृतक।मपिशाच-
वशीक्तत्वात् सदवितीयत्वसिधे मेधुनव्यददहारसिद्धिः
४---तच्त्चार्धवातिक ७ १६ ६
५४--पाक्षिक्सूत्र
से मेहुणे चउच्विहे पन्नत्त तजहा--द्व्वमो दित्तजो कारूओ सावओो। व्य्वभौण मेहुण रूचछ वा सासहयएस दा । दित्तमो ण मेहुण
उड्ढलोए वा होलोए वा নিব্যি-ীত্ ভা । কাজী তা ঈততা হিল दा राजो वा। नादक्ो ण भेहुणे रागेण वा दोरेण वा
ई--परहाचर्य (क्ली०) ०३
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