आनंद मठ भाग 1 | Aanand Math Bhaag-1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चोथा परिच्छेद्‌ १४. घरगाढता ओर क्षुधा-तृष्णाकौ मारते वाह्य ज्ञान शल्य हो, आन्तरिक चेतन्यसे भरकर कलत्याणोको अन्तरिक्षम स्वर्गीय गान सुनाई देने लगा, मानों कोई भा रहा है “हरे मुरारे, मधुकेटभारे ! गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे ! हरे मुरारे मधुकेठभारे |”? कल्याणी लड़कपनसे द्वी पुराणोंमें सनती आयी थी कि देवर्षिं नारद वौणा हाथमें ,लिये हरिनामका कौतेन करते, गगनपथमे विचरण करते हुए,भुवन- भ्रमण किया करते हैं। यही कत्पना उसके मनमें जाग बेठो । उसे मालूम होने लगा मानो शुभ्र शरीर, श॒ुञ्र केश, धुध्र-वसनः महा रारीर, महामुनी নীলা हाथमें लिये, चन्द्रकोकमें प्रदीत्त नीछाकाशमें गा रहे हैं । न्रे सुरारे मधुकेटभारे 1” कमश. गीत शौर पास सुनाई देने लगा । उसे साफ सुनाई दिया कि कोई गा रहा है. हरे) मुरारे 1, मधुक्रेटभारे |] क्रमशः गाना और भी निकट--और भो स्यष्ट माल्म पढने र्गा, मानो कोई गाता है । «हरे ] मुरारे ) मधघुकेटभारे !” अन्तमें कल्याणीके सामने वनस्थलीसे भी उस गीतकी अ्रति््वन गूँज डठौ- «हरे ! मुरारे 1 मधुकेदभारे 1 कल्याणीने आँखे खोलीं। उसने क्षोण प्रकाशमें देखा, कि লী হাস शरोर, शुभश्र-केश, श॒ुश्र-वसत ऋषि-सूत्ति उसके सामने खड़ी है | अन्यमतस्क कल्याणीने श्रद्धा-सक्ति-युक्त उन्हें प्रणाम करना चाहा, पर प्रणाम न कर सकौ । सिर झुकाते दी बेहोश होकर गिर पढ़ी ।




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