देवार्चन | Devarchan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १ ) पन्द्रहवे सगं मे श्रीहष रत्ना को अब्दुरहीम खानखाना द्वारा भेजा गया एक पत्र देता है जिसमें तुलसीदासजी की स्थिति ओर उनका महत्व समझकर श्रीहष से अनुरोध किया था कि वे उस अहाप्राण सती को धयं दिल्ावं जिसको तपस्या ही लोक कल्याण का आधार बन सकती है । सोलहबें सगे में तुलसीदास आसेतु हिमराज्ूय भारत की फर से यात्रा करते हैं और राम चरित मानस की रचना पूर्ण करते हैं । | सत्रहवें सर में वे पच्ची ल वर्षों बाद रत्ना को देखने के डे से अपने गाँव पहुँच जात है। आगत साथु की भिज्षा का थात्र लेकर रत्ना भिक्षा देने दरवाजे पर आती हैं। साधु नारायण नारायण ! नारायण ! कह उठता है । आवाज से पल्ली षति को पहिचान लेती है। भिक्षा का सुसल्वित थात्न हाथों से छूटकर गिर पड़ता हैं । रज्ला सन्‍्यासी के सम्मुख अपनी करुणा उडेल देती है । सन्यासी बिना किसी उद्ग के केवल “रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम” कहकर लौट पड़ता है ओर मानो सदा के लिये अन्तद्धोन हो जाता है | देवाचन की प्ररणा--- देवाचन की रचना की प्रेरणा मुझे तुलसीदास जी के ग्रन्थों - के अध्ययन द्वारा प्राप्त हुईं। ज्यों-ज्यों में पने महान चरित्र नायक की रचनाओं का अध्ययन करता गया त्यों-त्यों मेरे हृढय में उनका महत्व स्थापित होता गया। उनके महत्व को घटा कर बताने वाले अथवा उसे स्वीकार न करने वाल्ली राष्ट्र भाषा की सारी प्रवृत्तियाँ भी मेरे अध्ययन का विषय बनीं | अपने इस लगातार अध्ययन के बल में इस निष्कष पर पहुँचा




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